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(१८) - अर्थ-"अथ हे भगवन् ! तथारूप श्रमण अथवा माहणतपस्वी चैत्यघर यानि जिनमंदिर जावे?"भगवंत कहते हैं "हे गौतम रोज रोज अर्थात् हमेशां जावे" गौतमस्वामी पूछते हैं "हे भगवन् ! जिस दिन न जावे तो उस दिन क्या प्रायश्चित्त होवे ?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम प्रमादके वशसे तथारूप साधु अथवा तपस्वी जो जिनगृहे न जावे तो छठ अर्थात् बेला दो उपवास,अथवादुवालस अर्थात् पांच उपवास (व्रत)का प्रायश्चित्त होवे" गौतमस्वामी पूछते हैं "हे भगवन् ! श्रमणोपासक श्रावक पोषधशालामें पोषध में रहा हुआ पोषधब्रह्मचारी क्या जिनमंदिरमें जावे ?" भगवंत कहते हैं "हां हे गौतम ! जावे" गौतमस्वामी पूछते हैं “हे भगवन् किसवास्ते नावे?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम! ज्ञालदर्शनचारित्रार्थे जावे ?" गौतमस्वामी पूछते हैं “जोकोई पोषधशाला में रहा हुआ पोषध ब्रह्मचारी श्रावक जिनमंदिरमें न जावे तो क्या प्रायश्चित्त होवे ?" भगवंत कहते हैं "हे गौतम ! जैसे साधुको प्रायश्चित्त तैसे श्रावकको प्रायश्चित्त जानना, छछ अथवा दुवालसका प्रायश्चित्त होवे" पूर्वोक्त पाठ श्रीमहाकल्पसूत्रमें हैं,* और महा कल्पसूत्रका नाम पूर्वोक्त नंदिसूत्रके पाठमें है। जेठे निन्हवने यह पाठ जीतकल्पसूत्रका है ऐसे लिखा है परंतु जेठेका यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि जीतकल्पसूत्रमें ऐसा पाठ नहीं है । . . , “ तथा तुंगीया, सावत्धी, आलंभिका प्रमुख नगरियोंके जो शंखजी, शतकजी, पुष्कलीजी, पानंद और कामदेवादिक जैनी श्रावक थे वे सर्व प्रतिदिन तीन वा श्री जिनप्रतिमाकी पूजा करते थे। तथा जो जिनपूजा करे सो सम्यक्त्त्वी और जो न करे सो मिथ्यात्वी जागना इत्यादि कथनभी इसी सूत्रमें है-तथाच तत्पाठः- . .
" , "तणं कालेणं तेणंसमएणं जाव तुंगीया नयरीए बहवे सम