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चलता है, बहुते पुण्यवंत श्रावक सथर्मोकी भक्ति अनेक प्रकारसे करते हैं । जेकर जेठमल इसका अर्थातः सधर्मीवात्सल्य करनेका निषेध करता है और लिखता है कि इस कार्य में उसकी इच्छा है, जिनाज्ञा नहीं है तो ढूंढिये अपने सधर्मीको जीमाते हैं, संवत्सरीका पारणा कराते हैं, पूज्यकी तिथिमें पोसह करके अपने सधर्मीको जीमाते हैं इनमें जेठमल और ढूंढिये साधु पाप मानते होवेंगे, क्योंकि इन कार्यों में हिंसा जरूर होती है। जब ऐसे कार्य में पाप मानते हैं तो ढूंढिये तेरापंथी भीखमके भाई बनके यह कार्य किसवांस्ते करते हैं ? क्या नरक में जाने वास्ते करते हैं ?
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(८) तेतली प्रधानको पोट्टीलदेवताने समझाया सो धर्म के वास्ते ॥ (९) तीर्थंकर भगवंतने वर्षोदान दीया सो पुण्यदान धर्म प्रकट करने वास्ते ॥
(१०) देवता जिनप्रतिमा तथा जिनदाढ़ा पूँजते हैं सो मोक्ष फल वास्ते ॥
(११) उदयनराजा वडे. आडंबरसे भगवंतको वंदना करने वास्ते गया सो पुण्य प्राप्ति वास्ते ॥
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इत्यादिक अनेक कार्य सम्यग्दृष्टियोंने करे हैं जिनमें महापुण्य प्राप्ति और तीर्थंकरकी आज्ञाभी है । जेकर जेठमल एकांत दयासे ही धर्म मानता है तो श्रीभगवतीसूत्र के नवमें शतक में कहा है कि जमालिने शुद्ध चारित्र पाला है, एक मक्खी की पांख भी नहीं दुखाई है, परंतु प्रभुका एकही वचन उत्थापनसे उसको अहिंसा के फलकी प्राप्ति नहीं हुई किंतु हिंसा के फलकी प्राप्ति हुई। इस वास्ते यह समझना, कि जिनाज्ञाविनाकी दया तो स्वरूपे दया है; परंतु अनुबंधतो हिंसा ही है, और इसीवास्ते जमालिकी दया साफल्यता