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ओहीनाणी; मंणपज्जवणाणी,केवलनाणी" ऐसे कहा है परंतु एक ठिकाने भी “मइचैत्यी, सुअचैत्यी, ओहीचैत्यी, मणपज्जवचैत्यी, केवलचैत्यी" ऐसे नहीं कहा है। "
तथा जहां जहां भगवंतको तथा साधुओंको अवधिज्ञान,मनपर्यवज्ञान, परमावधिज्ञान, तथा केवलज्ञान उत्पन्न होनेका अधिकार है, वहां वहां ज्ञान उत्पन्न हुआ ऐसे तो कहा है, परंतु अवधि चेत्य उत्पन्न हुआ, मनपर्यव चैत्य उत्पन्न हुआ, या केवल चैत्य उत्पन्न हुआ,इत्यादि किसी ठिकाने भी नहीं कहा है। और सम्यग् दृष्टि श्रावक प्रमुखको जातिस्मरणज्ञान तथा अवधिज्ञान उत्पन्न होनेका अधिकार सूत्र में जहां जहां है वहां वहां भी अमुक ज्ञान उत्पन्न हुआ ऐसे तो कहा है, परंतु जातिस्मरण चैत्य पैदा भया,अवधिचैत्य पैदाभया ऐसे नहीं कहा है । इत्यादि अनेक प्रकार से यही सिद्ध होता है कि सूत्रोंमें किसी ठिकानेभी ज्ञानको चैत्य नहीं कहा है, इसवास्ते जेठेका कथन मिथ्या है ! चैत्य शब्दका अर्थ ज्ञान ठहरानेवास्ते जो बोल लिखे हैंउनको पुनः विस्तार पूर्वक लिखने से मालूम होता है कि २६ में बोलमें जंघाचारण मुनिके अधिकारमें 'चेइयाई वंदित्तए ऐसा शब्द है उसका अर्थ जेठमलने वीतरागको वंदना करी ऐसा करा है सो खोटा है,वीतरागकी प्रतिमा को जंघाचारणने वंदना करी यह अर्थ सच्चा है इसबाबत पंदरवें प्रश्नोत्तरमें खुलासा लिखा गया है ।
. २७ में बोलमें जेठमलने चमरेंद्र के अलावे में “अरिहंते वा अरिहंत चेझ्याणिवा" और "अणगारेवा" ऐसा पाठ है ऐसे लिखा है इस पाठसे तो प्रत्यक्ष "चेइये" शब्दका अर्थ 'प्रतिमा सिद्धहोता है, क्योंकि इस पाठमें साधुभी जुदे कहे हैं, और अरिहंत भी जुदे