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वासामि" अर्थात् सेवा करूं ऐसा करा है, परंतु कितनेक ढूंढियों ने हडतालसे मेटके नवीन कितनेक पुस्तकों में जो मन मानासो अर्थ लिख दिया है, इसवास्ते वो मानने योग्य नहीं है। - किसी कोषमें भी चैत्यशब्दका अर्थ साधु नहीं करा है और तीर्थंकरभीनहीं करा है; कोषमें तो "चैत्यं जिनौकस्तदिवं चैत्यो जिनसभातरुः” अर्थात् जिनमंदिर और जिनप्रतिमाको 'चैत्यं' कहा है और चौतरेवन्ध वृक्षका नाम 'चैत्य' कहा है इनके उपरांत
और किसी वस्तुका नाम चेत्य नहीं कहा है। तथा तेइसमें और चौवीसमें वोलमें आनंद तथा अंबडका अधिकार फिराकर लिखा है, उस वावत सोलवें तथा सतारवें प्रश्नमें हम लिख आए हैं । ढूंढिये चैत्यशब्दका अर्थ साधु कहते हैं परंतु सूत्रमें तो किसी ठिकाने भी साधुको चैत्य कहकर नहीं बुलाया है । "निग्गंथाणवा निग्गंथिणका" ऐसे कहा है, "साहुवा साहुणीवा" ऐसे कहा है, और "भिक्खुवा भिक्खुणीवा" ऐसे भी कहा है, परंतु “चैत्यंवा चैत्यानिवा" ऐसे तो एक ठिकाने भी नहीं लिखा है । तथा जेकर चैत्यशब्दका अर्थ साधु होवे तो सो चैत्यशब्द स्त्रीलिंगमें तो बोलाही नहीं जाता है तो साध्वीको क्या कहना ? .
' तथा श्रीमहावीरस्वामीके चौदह हजार साधु सूत्रमें कहेहैं परंत चौदह हजार चैत्य नहीं कहे, श्रीऋषभदेवस्वामीके चौरासी हजार -साधु कहे परंतु चौरासीहजार चैत्य नहीं कहे, केशीगणधरका - पांचसौ साधुका परिवार कहा-परंतु चैत्यका परिवार नहीं कहा इसी तरह सूत्रोंमें अनेक ठिकाने आचार्यके साथ इतने साधु विचरते हैं, ऐसेतो कहा है परंतु किसी ठिकाने इतने चैत्य विचरते हैं ऐसे नहीं