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( २१७ ) ने वहुत आरंभके कार्य करे हैं। तथा ढूंढिये भी जैनमार्गी नाम धराके अरिहंतके कहे वचनों को उत्थापते हैं, जिन प्रतिमाको निंदते हैं, सूत्रविराधते हैं; भगवंतने तो एक वचनके भी उत्थापक को अनंत संसारी कहा है, यह बात दूढिये जानते हैं तथापि पूर्वोक्त कार्य करते हैं और नरकमें जानेसे नहीं डरते हैं,निगोदमें जाने से भी नहीं डरते हैं, क्योंकि शास्त्रानुसार देखनेसे मालूम होता है कि इनकी प्रायः नरक निगोदके सिवाय अन्यगति नहीं है।
(५०) “कूर्मापुत्र केवलज्ञान पाने पीछे ६ महीने घरमें रहे कहा है" उत्तर-जो गृहस्थावासमें किसी जीवको केवलज्ञान होवे तो उसको देवता साधुका भेष देते हैं और उसके पीछे वो विचरते तथा उपदेश देते हैं। परंतु कुर्मापुत्रको ६ महीने तक देवत्ताने ' साधुका भेष नहीं दिया और केवलज्ञानी जैले ज्ञान में देखे तैसे करे परंतु इस वातसे जेठमलके पेटमें क्यों शूल हुआ ? सो कुछ समझमें नहीं आता हे॥ .
(५१) “सूत्रमें सर्वदानमें साधुको दान देना उत्तम कहा है और प्रकरणमें विजयसेठ तथा विजयासेठानी को जीमावने से ८४००० साधुको दान दिये जितना फल कहा" उत्तर-विजयसेठ और विजयासेठानी गृहस्थावासमें थे, उनकी युवा अवस्था थी, तत्कालका विवाह हुआ हुआथा, और काम भोग तो उन्होंने दृष्टि से भी देखे नहीं थे ऐसे दंपतीने मन वचन काया त्रिकरण शुद्धिसे एक शय्यामें शयन करके फेरभी अखंड धारासे शील (ब्रह्मचर्य)
बत पालन किया है,इसवास्ते शोलकी महिमा निमित्त पूर्वोक्त प्रकार । कथन करा है। और उनकी तरह शील पालना सो अति दुष्कर .