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( २०१. ) में कुछभी विरोध नहीं है और इसीवास्ते यह मान्य करने योग्य है* जो जो ग्रंथ अद्यापि पर्यन्त पूर्व शास्त्रानुसार बने हुए हैं सो सत्य है, क्योंकि जैनमतके प्रमाणिक आचार्योंने कोईभी ग्रंथ पूर्व ग्रंथों की छाया विना नहीं बनाया है, इसवास्ते जिनको पूर्वाचार्योंके वचन में शंका होवे उन्होंने वर्तमान समयके जैनमुनियों को पूछ लेना वोह तिसका यथामति निराकरण करदेवेंगे, क्योंकि जो पंडित
ओर गुरुगमक जानकार हैं वोह ही सूत्रकी शैलिको और अपेक्षाको ठीक ठीक समझते हैं।
जेठमल लिखता है कि "जो किसी वक्त भी उपयोग न चूका होवे तिसके किये शास्त्र प्रमाण हैं "जेठेके इस कथन मुजिब तो गणधर महाराजाके वचन भी सत्य नहीं ठहरे ! क्योंकि जब श्रीगौतमस्वामी आनंद श्रावक के आगे उपयोग चुके तो सुधर्मा स्वामी क्यों नहीं चूके होवेंगे ?
* यदि ढूंढिये अभव्यकुकल का अनादर करके "नसाजाइ” इत्यादि पाठको ही मंजर करते हैं तो उनके प्रति हम पूछते हैं कि आप बताए कि-पांच अनतरविमान में देवता तीर्थ कर, चक्रवती,वासुदेव,प्रतिवामदेव बलदेव, नारद, केवल ज्ञानी और गणधर के हायसे दीना तीर्थ कर का वार्षिक दान, लोकान्तिक देवता, इत्यादि अवस्थाभी की प्राप्ति प्रभव्य के जीवको होती है ? क्योंकि तुम तो भव्य अभव्य सर्व को स्थान जाति कुन्त योनि में उत्पन्न हए मानते हो तो तु सारे माने मूजिव तो पूर्वोक्त सर्व अवस्था प्रभन्यजीव की प्रोनी चाहिये परन्त होती कभी भी नहीं हैं, और यही वर्णन प्रभव्य कुलकमे है, तथा प्रभव्यकुलक की वर्णन करी कई बातें ढूंढिये लोका मानते भी हैं तो भी पभव्यकुन्नक का अनादर करते हैं जिसका असली मतलब यह है कि प्रभव्यकुलक में लिखा है कि तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजादि सामग्रीमें जो पृथिवी पाणी धूप चदन पुष्पादि काम पाते हैं उनमें भी अभव्य के जीव उत्पन्न नहीं होसक्त है अर्थात् जिम चीन में प्रभध्यका जीव होगा वो चीज जिनप्रतिमार्क निमित्त या जिनप्रतिमा को पूजाके निमित काम में न पायेगी,सो यही पाठ रनको दुःखदाई होरहा है उल्लू को सूर्यवत् ।