________________
सूत्रके मूलपाठमें कही है, परंतु ढूंढिये नियुक्ति मानते नहीं हैं। इस वास्ते यह महा मिथ्या दृष्टि अनंत संसारी हैं।
तित्थगराण भगवओ पवयण पावयणि अइसढीणं अहिगमण णमण दरिसण कित्तणओ पूयणा थुणणा ॥ ४७॥ जम्माभिसेय णिक्खमण चरण णाणुप्पत्तीय णिव्वाणे। दियलोय भवणमंदर गंदीसर भोम णगरेसु ॥४८॥ अट्ठावय मुज्जते गयग्गपएय धम्मचक्केय । पास रहावन्तणयं चमरुप्यायं च वंदामि ॥ १९ ॥ गणियं णिमित्त जुत्ती संदिठी अवितह इमं गाणं। इय एगत मुवगया गुणपच्चइया इमे अत्था ॥ ५० ॥ गुणमाहप्पं इसिणाम कित्तणं सुरणरिंद पयाय। पोराण चेइयाणियइइ एसा दसणे होइ ॥ ५१।। भावार्थ-भावना दो प्रकार की है,प्रशस्त भावना और अप्रशस्त भावना; तिनमें प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान,मधुन और परिग्रह तथा क्रोध,मान,माया और लोभ में प्रप्रशस्त भावना जाननी। यदुक्तं-"पाणवह मुसावाए अदत्तमेहुण परिग्गहे चेव।
कोहेमाणे माया लोभेय हवंति अपसत्था॥" पौर दर्शन, धान, चारिच, तप, वैराग्यादिको प्रशस्तभावना जाननी तिनमे प्रथम दर्शनभावना जिससे दर्शन (सम्यक्त्त्व)कीशुद्धिहोती है,उसका वर्णन यास्त्रकार करते है।
तित्थगराण भगवओ इत्यादि:तीर्थंकर भगवंत, प्रवचन, प्राचार्याटि युगप्रधान, अतिशय ऋवि मत-केवलज्ञानी मनः पर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदहपूर्वधारी, तथा आमर्पोषध्यादि ऋद्धिवाले, इनके सन्मुख जाना, नमस्कार करना, दर्शन वारना गुणेत्कीर्तन करना, गंधादिकसे पूजन करना,स्तोवादिकसे स्तवन करना इत्यादि दर्शनभावनाजाननी; निरंतर इसदर्शनभावना के भावनेसे दर्शनशुद्धि होती है,तथा तीर्थंकरोंकी जन्मभमिमें तथा निःक्रमण, दीक्षा, भामोत्पत्ति, पौर निर्वाण भूमिमें, तथा देवलोक भवनों में मंदिर (मेरुपर्वत) ऊपर, तथा