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गंगा सिंधु की वेदिका, लवण समुद्रका जल वगैरह बंधते घटते हैं; परन्तु ज्ञाश्वते हैं तैसे शत्रुंजय भी शाश्वता है जरा मिथ्यात्व की नींद छोड़के जागो और देखो !.
फेर जेठा लिखता है " सब जगह सिद्ध हुए हैं तो शत्रुंजय की क्या विशेषता है " इसका उत्तरः
तुम गुरु के चरणों की रज मस्तक को लगाते हो और सर्व जगत् की धूड़ (राख) तुमारे गुरु के चरणों करके रज होके लग चुकी है, इस वास्ते तुमारे मानने सूजिब सर्व धूड़ खाक टोकरी भर भरके तुमको अपने शिर में डालनी चाहिये; क्यों नहीं डालते हो ? हमतो जिस जगह सिद्ध हुए हैं, और जिनके नाम ठाम जानते हैं, तिनको तीर्थ रूप मानते हैं, और श्रीशत्रुंजय ऊपर सिद्ध होने के अधिकार श्री ज्ञातासूत्र तथा अन्तगड दशांग सूत्रादि अनेक जैन शास्त्रों में हैं ॥
तथा श्रीज्ञांतासूत्र में गिरनार और सम्मेदशिखर ऊपर सिद्ध होने के अधिकार हैं । इस चौबीसी के बीस तीर्थंकर सम्मेदशिखरऊपर मोक्ष पद को प्राप्त हुए हैं; श्रीजम्बूद्वीपपन्नन्ति में श्री ऋषभ देवजी का अष्टापद ऊपर सिद्ध होनेका अधिकार है ; श्री बासुपूज्य स्वामी चंपानगरी में और श्रीमहावीर स्वामी पात्रापरी में मोक्ष पधारे हैं इत्यादि सर्व भूमिका को हम तीर्थ रूप मानते हैं ।
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तथा तुमभी जिस जगह जो मुनि सिद्ध हुए होवें उनके नाम वगैरहका कथन बताओ, हम उस जगहको तीर्थ रूप मानेंगे क्योंकि हमतो तीर्थ मानते हैं, नहीं मानने वालेको मिथ्यात्व लगता है इति ॥
* विचारे कहा बतावें जिन चौबीस तीर्थंकरो को मानते हैं, उनका ही सार वर्णन इनके माने वत्तस शास्त्रों में नहीं है तो अन्यका तो क्याडी कहना, उ.