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(१४७) साक्षात् विचरते थे तब तिनकी सेवा, पूजा, देवता आदिकोंने करी है सो भोगीकी तरह या अभोगीकी तरह सो विचार लेना ? प्रभु को चामर होतेथे, प्रभु रत्न जडित सिंहासनों पर बिराजने थे, प्रभु के समवसरण में जलथलके पैदा भये फुलों की गोड़े प्रमाण देवते वृष्टि करते थे, देवते तथा देवांगना भगवंत के समीप अनेक प्रकार के नाटक तथा गीत गान करते थे; इसवास्ते प्यारे ढूंढियों ! विचार करो कि यह भक्ति भोगी देवकी नहीं थी किंतु वीतरागदेव की थी और उस भक्ति के करने वाले महापुण्यराशि बंधनके वास्ते ही इस रीति से भक्ति करते थे और वैसेही आज भी होती है प्यारे ढूंढियो ! तुम भोगी अभोगी की भक्ति जुदी जुदी ठहराते हो परंतु जिस रीति से अभोगी की भक्ति, वंदना, नमस्कारादि होती है तिस ही रीति से भोगी राजा प्रमुख की भी करने में आती है, जब राजा आवे तब खड़ा होना पडता है, आदर सत्कार दिया जाता है इत्यादि बहुत प्रकार की भक्ति अभोगीकी तरह ही होनी है और तिसही रीति से तुमभी अपने ऋषि-साधुओं की भक्ति करते हो तो वे तुमारे रिख भोगी हैं कि अभोगी ? से विचार लेना ! फेर जेठमल लिखना है कि "जैसे पिता को भूल लगने से पुत्रका भक्षण करे यह अयुक्त कर्म है तैस तीर्थंकर के पुत्र समाने षट् काय के जीवों को तीथकर की भक्ति निमित्त हणते हो साभी अयुक्त है " उत्तर - तीर्थंकर भगवन अपने मुखसे ऐसे नहीं कहते हैं कि मुझको वंदना, नमस्कार करो, स्नान कराओ, और मेरी पूजा करो, इसंवास्ते वे तो षट् काया के रक्षक ही हैं, परंतु गणधर महाराजा की बताई शास्त्रोक्त विधि मूजिव सेवकजन तिनकी भक्ति करते हैं तो आज्ञायुक्त कार्य में जो हिंसा है सो स्वरूपसे हिंसा है, परंतु अनुबंध से