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आमंत्रण करनेको जावे और आमंत्रण करे तब वोधनी ना न कहे अर्थात् मौन रहे तो सो आमंत्रण मंजर किया गिना जाता है, तैसेही प्रभुने नाटक करनेका निषेध नहीं किया मौनरहे,तो सोभी आज्ञा ही है तथा नाटक करनासोप्रभुकी सेवाभक्तिहै,यतः श्रीरायपसेणी सूत्रे
अहण्णमंते देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वयंगोय माइणं समणाणं निग्गंथाणं बत्तिसइबई नट्ट विहिं उवदंसमि॥
अर्थ-सुर्याभ ने कहा कि हे भगवन् ! मैं आपकी भक्ति पूर्वक गौतमादिक श्रमण निग्रंथोंको बत्तीस प्रकारकानाटक दिखाऊ? इस मूजब श्रीरायपसेणी सूत्रके मूलपाठ में कहा है, इसवास्ते मालूम होता है कि सुर्याभको भक्ति प्रधान है और भक्तिका फल श्रीउत्तराध्ययन सूत्रके २९, में अध्ययन में यावत् मोक्षपद प्राप्ति कहा है, तथा नाटक को जिनराजकी भक्ति जब चौथे गुणठाणेवाले सुर्याभ न मानी है तो जेठमल की कल्पना से क्या होसक्ता है ? क्योंकि चौथे गुणठाणसे लेके चउदमें गुणठाणे वाले तककी एकही श्रद्धा है जब सर्वसम्यक्त्व धारियोंकी नाटकमें भक्तिकी श्रद्धाहै तब तोसिद्ध होता है कि नाटक में भक्ति नहीं मानने वाले ढूंढक जैनमत से बाहिर है, तथा इस ठिकाने सूत्रपाठ में प्रभुकी भक्ति पूर्वक ऐसेकहा हुआ है तोभी जेठमलने तिसपाठको लोपदिया है इससे जेठमलका कपट जाहिर होता है।
(१३) जेठमल लिखता है कि " नाटक करने में प्रभुने ना न कही तिसका कारण यह है कि सुर्याभ के साथ बहुतसे देवता हैं, तिनके निज निज स्थान में नाटक जुदे जुदे होते हैं इसवास्ते