________________
( १८६) (२३)जिनमंदिर करानेसे तथा जिनप्रतिमाभराने
से बारमें देवलोक जावे इस बाबत।
श्रीमहानिशीथ सूत्रमें कहा है कि जिनमंदिर बनवाने से सम्यग्दृष्टि श्रावक यावत् बारमें देवलोक तक जावे-यतः साई प्रीति मिच्छतीति ततोऽभयेन प्रथम जिनप्रतिमा वहुप्रामृत युताऽऽककुमाराय प्रहिता इदं प्राभृतमेकांते निरूपणीयमित्युक्तं जनस्य सोप्याकपुरं गत्वा यथोक्तं कथयित्वा प्राभूतमार्पयत् प्रतिमा निरूपयतः कुमारस्य जातिस्मरणमुत्पन्नं धर्मे प्रतिबुद्धं मनः अभयं स्मरन् वैराग्यात्कामभोगेष्वनासक्तस्तिष्ठति पित्रा ज्ञातं मा क्वचिदसौ यायादिति पंचशत सुभटैनित्यं रक्ष्यते इत्यादि॥ .
भाषार्थः-एक दिन प्रार्द्रकुमारक पिताने दूतके हाथ रानगृह नगरीमें श्रेणिक राजाको प्राभत (नजर-तोसा) भेजा, पार्द्रकुमारने श्रेणिक राजा के पुत्र अभयकुमार के ताई स्नेह करने वास्ते उसी दूत के साथ प्राभूत भेजा, इतने राजगृह में जाकर श्रेणिक राजाको प्राभत दिये, राजाने भी दूतका यथायोग्य सन्मान किया, और पाई कुमारके भेजे प्राभत अभयकुमारको दिये तथा स्नेह पैदा करन के वचन कहे, तब अभयकुमारने सोचा कि निश्चय यह भव्य है, निकट मोक्षगामी है, जो मेरे साथ प्रीति इच्छता है। तब अभयकुमार ने बहुत प्राभत सहित प्रथमजिन श्रीऋषभदेव स्वामी की प्रतिमा पार्द्रकुमार के ताई भेजी और दूतको कहा कि यह प्राभत भाई कुमारको एकांतमे दिखाना, दूतने भी प्रार्द्रकपुर में जाके यथोल कथन करके प्राभूत दे दिया। प्रतिमाको देखते हुए पार्द्र कुमारको जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुभा, धर्म में मन प्रतिबोध हुआ; अभय कुमारको याद करता हुआ वैराग्य से काम भोगों में पासल नहीं होता हा पार्दकुमार रहता है, पिताने जाना मत कधी या कहीं चला जावे इसवास्ते पांच सौ सुभटों करके पिता हमेशा उसकी रक्षा करता इत्यादि ॥
. यह कथन श्रीमयगडांग सबके दसरे अतस्कंध के छठे अध्ययन में है। ट्रंटिये इस ठिकाने करते हैं कि अभयकुमारने पार्द्रकुमार को प्रतिमी नहीं भेजी है, मुईपत्ती भेजी है तो हम पूछते हैं कि यह पाठ किस-ट्रंढक पुराए में क्योंकि जैनमत कि किसी भी शास्त्र में ऐसा.कथन नहीं है। जनमतके शास्त्रों में तो पूर्वोत श्रीऋषभदेव स्वामी की मतिर्मा भेजने का भी धिकार है।