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और दान देना ही क्या ?" उत्तर-अरे ढूंढको ! सिद्धांतकी शैलि ऐसी है कि जिसकोजो संभवे तिसके साथ सो जोड़ना, अन्यथा बहुत ठिकाने अर्थ का अनर्थ होजावे,इसवास्ते वंदना नमस्कारतो अन्यतीर्थी आदि सबके साथ जोड़ना, और दानादिक अन्यतीर्थी के साथ जोड़ना, परंतु प्रतिमाके साथ नहीं जोड़ना, जैसे श्रीप्रश्न व्याकरण सूत्र में तीसरे महाव्रतके आराधने निमित्त आचार्य,उपाध्याय प्रमुख की वस्त्र, पात्र, आहारादिक सेवैयावृत्य करनेका कहा है सो जैसे सर्व की एक सरिखी रीतिसे नहीं परंतु जैसे जिसकी उचित होवे और जैसा संभव होवेतैसे तिसकी वेयावच्च समझने की है; तैसे इस पाठमें भी बुलाऊं नहीं, अन्नादिक देऊ नहीं, यह पाठ अन्यतीर्थी के गुरुकेही वास्ते है,यदि तीनों पाठ की अपेक्षामानोगे तो श्रीमहावीर स्वामी समयमें अन्यतीर्थी के देव हरि, हर,ब्रह्मा वगैरह कोई साक्षात् नहीं थे, तिनकी मूर्तियां ही थी; तो तुमारे करे अर्थानुसार आनंद श्रावक का कहना कैसे मिलेगा ? सो विचार . लेना! कदापि तुम कहोगे कि कितनीक देवीयां अन्नादिक लेती हैं तिनकी अपेक्षा यह पाठ है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि देवीकी भी स्थापना अर्थात् मूर्ति के पासही अन्नादिक चढ़ाते हैं, तोभी कदाचित् साक्षात् देवी देवताको किसी ढूंढक श्रावक श्राविकायाजेठमल वगैरह ढूंढकोंकेमातापितानेअन्नादिक चढ़ाया होवे अथवा साक्षात् बुलाया होवे तो बताओ?
फेर जेठमल लिखताहै कि "जिनप्रतिमा को अन्यमतिने अपने मंदिर में स्थापनकर लिया, तो तिससे जिन प्रतिमा काक्या बिगड़ गया कि जिससे तुम तिसको मानने योग्य नहीं कहते हो" उत्तरयदि कोई ढूंढकनी या किसी ढूंढक की बेटी या कोई ढूंढक का साधु