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( . १२३.) श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि "दव्वसुयं जं पत्तय पुथ्थय लिहियं " द्रव्य श्रुत सो जो पाने पुस्तक में लिखा हुआ है, इससे सूत्रकार के समय में पुस्तक लिखे हुए सिद्ध होते हैं, तथा तुमारे कहे मूजिब उस समय बिलकुल पुस्तक लिखे हुए थे ही नहीं तो श्रीऋषभदेव स्वामी की सिखलाई अठारां प्रकार की लिपी का व्यवच्छेद होगया था ऐसे सिद्ध होगा और सो बिलकुल झूठ है, और जो अक्षर ज्ञान उस समय होवे ही नहीं तो लौकिक व्यवहार कैसे चले ? अरे ढूंढको ! इससे समझो कि उस समय में पुस्तक तो थे, फक्त सूत्रही लिखे हुए नही थे और सो देवढी गणि क्षमाश्रमण ने लिखे हैं परंतु (९८०) वर्षे पुस्तक लिखेगये हैं, ऐसे तुमारे जेठमल ने लिखा है सो किस शास्त्रानुसार लिखा है ? क्योंकि तुमारे माने (३२) सूत्रों में तो यह बात है ही नहीं ॥
४-५ मा क्षेत्र साधु, और साध्वी इस की बाबत जेठमल ने लिखा है कि “साधु के निमित्त द्रव्य निकाल के तिसका आहार, अनुयोगद्वार सूत्र के पाठ की
टीका - तृतीयभेद परिज्ञानार्थमाह सेकिंतमित्यादि अत्र निर्वचनं जाणगसरीर भवियसरीर वइरितं दव्वसुतमित्यादि यत्र ज्ञशरीर भव्यशरीरयाः सर्वधि अनन्तरोक्त स्वरूपं न घटत तत्ताभ्या व्यतिरिक्तं भिन्न द्रव्यश्रुतं किं पुनस्तदित्याह पत्तययुध्थय लिहियंति पत्र काणि तलताल्यादिसंबंधीनि तत्संघातनिष्पन्नास्तु पुस्तकास्ततश्च पत्रकाणि च पुस्तकाश्च तेषु लिखतं पत्रकपुस्तक लिखतं अथवा पोथ्ययंति पोतं वस्त्रं पत्रकाणिच पोतंच तेषु लिखतं पत्रकपोत लिखितं ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं अत्रच पत्रकादि लिखितश्रुतस्य भावश्रुत कारणत्वात् द्रव्यत्वमवसेयमिति ॥