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(1 ) निमित्त निकाले धन में से सहायता करते हैं और सहधर्मी को सहायता करे, यह कथन श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अठाईसमें अध्ययन में है * जेठपल लिखता है कि श्रावक दीन अनाथ को अंतराय देवे नहीं" यह वात सत्य है, परंतु पूर्वोक्त लेखको विचार के देखोगे तो मालूम हो जावेगा कि इससे दीन अनाथ को कोई अंतराय नही होती है, तथा इस रीति से श्रावकों को दिया द्रव्य खैरायतका भी नहीं कहाता है ऊपरके लेखसे शास्त्रोंमें सात क्षेत्र कहे हैं, तिनमें द्रव्य लगाने से अच्छे फल की प्राप्ति होती है, और सुश्रावकों का द्रव्य उन क्षेत्रों में खरच होता था,और हो रहा है,ऐसे सिद्ध होता है ।
*श्रीउत्तराध्ययन सूत्रका पाठ यह है :निस्तंकिय निक्कंखिय निवितिगिच्छा अमूढ दिठ्ठीय । उववह थिरी करणे वच्छल्ल पभावणे अकृ॥३१॥ टीका-निःशंकित देशतःसर्वतश्चकारहितत्वंपुनर्निःकक्षितत्वं शाक्याद्यन्यदर्शनग्रहणवाञ्छारहितत्वं निर्विचिकित्स्य फलं प्रति सन्देहकरणं विचिकित्सा निर्गता विचिकित्सा निर्विचिकित्सा तस्य भावोनिर्विचिकित्स्यं किमेतस्य तपःप्रभूनिक्लेशस्य फलं वर्त्तते नवेति लक्षणं अथवा विदन्तीति विदः साधवस्तेषां विजुगुप्सा किमते मल मलिनदेहाः अचित्तपानीयेन देहं प्रक्षालयतांको दोषः स्यादित्यादि निन्दा तदभावो निर्विजुगुप्संप्राकृतार्षत्वात्सूत्रे निर्विचिकित्स्यं इति पाठः अमूटा दृष्टि रमूढदृष्टिः ऋद्धिमत्कुतीथिकानां परिव्राजकादी नामृद्धिं दृष्टा अमूढा किमस्माकं दर्शनं यत्सर्वथादरिद्राभिभूतं इत्यादि मोहरहिता दृष्टिर्बुद्धिरमूटहष्टिः यत्परतीर्थिनांभूयसीमृद्धिं दृष्ट्रापिस्वकीयेऽकिञ्चने धर्ममतेः स्थिरीभावः।अयंचतुर्विधोप्याचार