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((. ) किया अर्थात् अन्य तीर्थी में गया सो मुनितो परतीर्थी ही कहिये इस वास्ते अन्यतीर्थी को वंदना न करूं इसमें सो आगया, फेर कहनेकी कोईजरूरत न थी, और चैत्य शब्दकाअर्थसाधु करते होसो निःकेवल खोटा है, क्योंकि श्रीभगवती सूत्रमें असुर कुमार देवता सौधर्म देव लोक में जाते हैं, तब एक अरिहंत, दूसरा चैत्य अर्थात् जिन प्रतिमा, और तीसरा अनगार अर्थात् साधु, इन तीनोंका शरण करते हैं; ऐसे कहा है, यतःनन्नथ्य अरहित वा अरिहंत चेडूयाणि वा भावीअप्पणो अणंगारस्स वाणिस्साए उढं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो।
इस पाठमें (१) अरहित, (२) चैत्य, और (३) अनगार,यह तीन कहे हैं, यदि चैत्य शब्द का अर्थ साधु होवे तो अनगार पृथक् क्यों कहा, जरा ध्यानदेके विचार देखो! इसवास्ते चैत्य शब्दका अर्थ मुनि करते हो सो खोटा है, श्रीउपासक दशांगके पाठका सच्चा अर्थ पूर्वाचार्य जो कि महाधुरंधर केवली नहीं परंतु केवली सरिखे थे, वे कर गये हैं,सो प्रथम हमने लिख दिया है; परंतु जेठमल भाग्य हीन था, जिस से सच्चा अर्थ उसको नहीं भान हुआ, और चैत्य साधुका नाम कहते हो सो तो जैनेंद्र व्याकरण, हैमीकोष, अन्य व्याकरण,कोष, तथा सिद्धांत वगैरह किसी भी ग्रंथमें चैत्य शब्द का अर्थ साधु नहीं है, ऐसा धातु भी कोई नहीं है कि जिससे चैत्य शब्द साधु वाचक होवे,तो जेठमलने यह अर्थकिस आधारसे करा? परंतु इस से क्या ! जैसे कोई कुंभार,अथवा हजाम (नाई) ज्वाहिर के परीक्षक जौहरी को झूठा कहे,तो क्या बुद्धिमान पुरुष उस कुंभार,