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(६८) अन्यदर्शनियों में आचार्य, उपाध्याय, साध, ब्रह्मचारी आदि कहते है; और शास्त्रकारभी तिनको साधु कहकर बुलाता है, तो क्या इस से वे जैन दर्शन के साधु कहावेंगे? और वे वंदना करने योग्य होंगे? नहीं, तैसे ही मागधादि तीर्थ जान लेने। __ श्रीऋषभानन, (१) चंद्रानन, (२) वारिषेण, (३) और वर्द्धमान . (४) यह चार ही नाम शाश्वती जिन प्रतिमाके हैं, क्योंकि प्रत्येक चौवीसी में पंदरह क्षेत्रोंमें मिलाके यह चार नाम जरूर ही पाये जाते हैं, इस वास्ते इस बाबत का जेठेका लिखाण झूठा है। ___ तथा जेठा लिखता है कि "द्रोपदीके मंदिरमें प्रतिमा थी तो तिसको सिद्धायतन न कहा और जिन घर क्यों कहा" उत्तर-अरे मूढ ! जिनगृह तो अरिहंत आश्री नाम है, और सिद्धायतन सिद्ध आश्री नाम है। इसमें बाधा क्या है ? ।
फिर जेठा लिखता है “धर्मास्ति अधर्मास्ति वगैरह अनादि सिद्धके नाम कहकर तिनको सिद्ध ठहराके तुम वंदना क्यों नहीं करते हो" उत्तर-सिद्धायतन शब्दके अर्थ के साथ इनका कुछ भी संबंध नहीं है तो तिनको बंदना क्यों कर होवे ? कदापि ना होवे; परंतु तुम ढूंढिये नमोसिद्धाण'कहतहो तबतो तुम धर्मास्ति अधर्मा स्तिकोही नमस्कारकरतेहोगे! ऐसा तुमारेमत मूजिव सिद्ध होताहै ।
फिर जेठेने लिखाहै कि "अनंते कालकी स्थिति है, और स्वयं सिद्ध,विनाकरहुए,इस वास्तसिद्धायतन कहिये"उत्तर-अनादिकाल की स्थितिवाली और स्वयंसिद्ध ऐसी तो अनेक वस्तु यथा विमान, नरकावास, पर्वत, द्वीप, समुद्र, क्षेत्र, इनको तो किसी जगह भी सिद्धायतन नहीं कहा है। इस वास्ते जठेका लिखा अर्थ सर्वथा ही
मारवती अमारवती.लिन प्रतिमा भात्री मामांतर भेद परतु प्रयोजन एकही है।
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