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__(e ) को बंदना करने से ब्राह्मीलिपी को तो वंदना अवश्यमेव हो गई, क्योंकि क्रियाका कर्ता वंद्य तो क्रिया भी वंद्य हुई।
फेर जेठा लिखता है कि “अक्षर छापना तो सधर्मास्वामी के वक्त में नहीं, था सो तो श्रीवीर निर्वाण के नवसो अस्सी (९८०) वर्ष पीछे पुस्तक लिखे गए तब हुआ है"॥
उत्तर-अरे मूढ ! सुधर्मास्वामीके वक्त में अक्षरस्थापना ही नहीं थी तो क्या श्री ऋषभदेव जी ने अठारां लिपी दिखलाई थी तिनका व्यवच्छेद ही होगया था ? और तैसेथा,तो गृहस्थोंका लैन, देन, हुण्डी, पत्री, उगराही, पत्र लेखन, व्याज वगैरह लौकिक व्यवहार कैसे चलता होगा ? जरा विचार करके बोलो ! परंतु इस से हमको तो ऐसे ही मालूम होता है कि जेठमल को और तिस के ढुंढकों को सूत्रार्थ का ज्ञान ही नहीं है, क्योंकि श्री अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि-दव्वसुअंजं पत्तय पौथ्थयलिहियं अर्थ-द्रव्य श्रुत सो जो पत्र पुस्तक में लिखा हुआ हो, तो अरे कुमतियो ! यदि उन दिनों में ज्ञान लिखा हुआ,और लिखा जाता न होता तो गणधर महाराज ऐसे क्यों कहते ? इस वास्ते मतलब यही समझनेका है कि उन दिनों में पुस्तक थे; अठारां लिपी थी; परंतु फकत समग्र सूत्र लिखे हुए नहीं थे, सो वीर निर्वाण के ९८० वर्षे पीछे लिखे गए; आखीर में हम तुमको इतना ही पूछते हैं कि तुम जो कहते हो कि श्री वीर निर्वाण के बाद (९८०) वर्षे सूत्र पुस्तकारूढ़ हुए हैं, सो किस आधार से कहते हो ? क्योंकि तुमारे माने बत्तीस सूत्रों में तो यह बात ही नहीं है।
तथा जेठमल लिखता है कि “अठारां लिपी अक्षर रूप बंदनीक मानोगे तो तुमको पुराण कुरान वगैरह सर्व शास्त्र वंदनीक