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होंगे"। उत्तर-श्रीनंदिसूत्र में अक्षर को श्रुतं ज्ञान कहा है, और ज्ञान नमस्कार करने योग्य है;परंतु तिस में कहा।भावार्थ-वंदनीक नहीं है श्रीनंदि सूत्र में कहा है कि अन्य दर्शनियों के कुल शास्त्र जो मिथ्या श्रुत कहाते हैं, वे यदि सम्यग्दृष्टि के हाथ में हैं तो सम्यक् ' शास्त्रही हैं,और जैनदर्शनशास्त्र यदि मिथ्यादृष्टिके हाथमें तो वे मिथ्या श्रुत ही हैं इस वास्ते अक्षर वंदना करने में कुछ भी वाधक नहीं है; और जेठमल ने लिखा है कि-"जिनवाणी भावश्रुत है" परंतु यह लिखना मिथ्या है, क्योंकि जिन वाणी को श्रीनंदि सूत्र में द्रव्यश्रुत कहा है और श्रीभगवती सूत्र में "नमोसुअ देव. याए" इस पाठ करके गणधरदेवने जिनवाणी को नमस्कार किया है, तैसे ही ब्राह्मीलीपि नमस्कार करने योग्य है, जैसे जिनवाणी भाषा वर्गणा के पुद्गल रूप करके द्रव्य है, तैसे ब्राह्मीलीपि भी अक्षर रूप करके द्रव्य है ।
अरे ढूंढको ! जब तुम आदिकर्ता को नमस्कार करने की रीति स्वीकार करते हो, तो तीर्थंकरों के आदि कर्त्ता तिन के माता पिता हैं, तिनको नमस्कार क्यों नहीं करते हो? अरे भाइयो! जरा ध्यान दे कर देखो तो ऊपर कुल दृष्टांतों से “नमो बंभीए लीवीए" का अर्थ ब्राह्मीलीपि को नमस्कार हो ऐसा ही होता है इसवास्ते जरा नेत्र खोलके देखो जिससे तीर्थंकर गणधर की आज्ञा के लोपक न बनो॥ इति ॥ (१५) जंघाचारण विद्याचारण साधओं ने
जिन प्रतिमा वांदी है। पंदरमें प्रश्नोत्तर में जेठमल लिखता है कि "जंघाचारण तथा