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(१४) नहीं वाद है सो तिनकी गतिका स्वभाव है। क्योंकि बीचमें दसरा विसामा ले नहीं सक्त हैं, यह बात श्रीभगवती सूत्र में प्रसिद्ध है, परंतु पूर्वोक्त लेखसे जेठमल महामृषावादी उत्सूत्र प्ररूपक था ऐसे प्रत्यक्ष सिद्ध होता है, क्योंकि पूर्वोक्त प्रश्नोत्तर में वो आपही लिखता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्यनहीं हैं और इस प्रश्न में लिखता है कि मानुषोत्तर पर्वत पर चैत्य क्यों नहीं वांदे ? इससे सिद्ध होता है कि मानुषोत्तर पर्वतपर चैत्यजरूर हैं परंतु जहां जैसाअपने आपकोअच्छालगा वैसाजेठमलने लिखदिया है, किंतु सूत्रविरुद्ध लिखने का भय बिलकुल रक्खामालूम नहीं होता है,पुनः जेठमल ने लिखा है कि "चारणमुनियों को चारित्रमोहनीका उदय है इस वास्ते उनकोजाना पड़ा है" परंतु अरेमूढ ! यह तो प्रत्यक्ष है कि उनको तो इसकार्य से उलटी दर्शनशुद्धि है,परंतु चारित्र मोहनीका उदय तो तुम ढूंढकों को है,ऐसे प्रत्यक्ष मालूम होता है ॥
फेर जेठमल लिखता है कि "चारणमुनियों ने अपने स्थान में आनके कौनसे चैत्य वांदे" उत्तर-सूत्रपाठ में चारणमुनि"इह मागच्छइ"अर्थात् यहां आवे ऐसे कहा है,तिसका भावार्थ-यह है कि जिस क्षेत्रसे गयेहोवे तिस क्षेत्र में आवे, आनके " इह चेइ आई वंदइ " अर्थात् इस क्षेत्रके चैत्य अर्थात् अशाश्वती जिन प्रतिमा तिनको वांदे ऐसेकहाहै,परंतु अपने उपाश्रये आवेऐसे नहीं कहाहै, इस बाबत में जेठमल कुयुक्ति करके लिखता है कि "उपाश्रयमें तो चैत्यहोवे नहीं इसवास्ते तहां कौनसे चैत्यवांदे?यह केवल जेठमल की बुद्धिका अजीर्ण है, अन्य नहीं,और श्रीभगवती सूत्र के पाठ से तो शाश्वती अशाश्वती जिन प्रतिमा सरीखी ही है, और इन दोनों में अंशमात्र भी फेर नहीं है,ऐसे सिद्ध होता है।