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होकर उजेला करने का है जो कि घृत सुरूसे ही दूध तन्मय हो छिपरहा है इस लिये उस अपने स्वभावको खोये हुये है वैसे ही
आत्मा का भी स्वभाव विश्वरतताशान्तता और विश्वप्रकाशकता है परन्तु अनादिकाल से कर्मों में घिर कर मूर्छित हो रहा है। अतः इसका वह सहजभाव लुप्त हो रहा है पलटा बन रहा है
और का और होगया हुआ है अविश्वस्तता, उत्क्रान्तता और अनभिज्ञता के रूपमे परिणत हो रहा हुआ है । हां दूध में रह कर भी धृत की निग्धता अपना किश्चित् सुटीकरण लिये हुये रहती है उसके आश्रय से घृतको पहिचान कर रई वगेरह के द्वारा विलोडन कर के दूध मे से निकाल कर फिर उसे अग्नि पर सपा छान कर उसे छछेडू से भी मिन्न करके शुद्धधृत कर लिया जाता है वैसे ही कर्मों में सने हुये इस आत्मा का भी सिर्फ ज्ञान गुण अपना थोड़ासा प्रकाश दिखला रहा है उसे वीज रूप मान कर सद्विचार रूपरई के द्वारा इस शरीर से मिन्न छांट कर तथा निरीहतारूप अग्नि में तपा कर उसमें से राग द्वेषरूप अछेडूको भी दूर हटा कर इस आल्माको भी शुद्ध वनालिया जा सकता है जो कि शुद्धत्व,सादि और अनन्त है अर्थात्- पूर्ण शुद्ध होलेने पर आत्मा फिर वापिस अशुद्ध नही होता है जैसे कि मक्खन का धृत बना लेने के बाद वह फिर मक्खन नहीं बन सकता । शङ्का-आपने जो कहा कि अशुद्धता अनादि से है और
शुद्धता सादि सो समझ में नहीं आई हम वो समझते