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दिगम्बर परम्परानुसार परनिन्दा, आत्मप्रशंसा, सद्गुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन-ये नीचे गोत्र के आस्रव है ।
अणु (परमाणु ) एक प्रदेशी होने से सबसे छोटा होता है अतः वह अणु कहलाता है। वह इतना सूक्ष्म होता है जिससे वही आदि है. वही मध्य है और वही अन्त है।
जिनमें स्थूल रूप से पकड़ना, रखना आदि व्यापरिका स्कन्धन अर्थात् संघटना होती है वे स्कंध कहे जाते हैं। रूढि में क्रिया कहीं पर होती हुई उपलक्षण रूप से वह सर्वत्र ली जाती है। इसलिए ग्रहण आदि व्यापार के अयोग्य द्वयणुक आदिक में भी स्कंध संज्ञा प्रवृत्त होती है। यद्यपि पुद्गलों के अनत भेद हैं तो भी वे सब अणुजाति और स्कंध जाति के भेद से दो प्रकार के हैं।
अणु स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण वाले हैं परन्तु स्कंध शब्द, बन्ध, सौक्ष्म, स्थौल्य, संस्थान, भेद, छाया, आतप और उद्योत वाले हैं तथा स्पर्शादि वाले भी है ।
भेद से, संघात से व भेद-संघात से स्कंध उत्पन्न होते हैं ऐसा दिगम्बर आचार्य मानते हैं। यथा-१-संघात से-दो परमाणुओं के संघात से दो प्रदेश वाला स्कंघ उत्पन्न होता है। दो प्रदेश वाले स्कंध और एक अणु के संघात से या तीन अणुओं के संघात से तीन प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है। दो प्रदेशवाले दो स्कंधों के संघात से, तीन प्रदेशवाले स्कंध और अणु के संघात से या चार अणुओं के संघात से दो चार प्रदेशवाला स्कंध उत्पन्न होता है । इस प्रकार संख्यात, असंख्यात, अनंत और अनंतानंत अणुओं के संघात से उतने-उतने प्रदेशोंवाले स्कंध उत्पन्न होते हैं। २-तथा उन्हीं संख्यात आदि परमाणुवाले स्कंधों से भेद में दो प्रदेशवाले स्कंध तक स्कंध उत्पन्न होते हैं। ३-इस प्रकार एक समय में होने वाले भेद और संघात इन दोनों से दो प्रदेशवाले आदि स्कंध उत्पन्न होते हैं-ऐसी दिगम्बर परम्परा में कहा है। तात्पर्य यह है कि जब अन्य स्कंध भेद से होता है और अन्य का संघात, तब एक साथ भेद और अन्य का संघात तब एक साथ भेद और संघात इन दोनों से भी स्कंध की उत्पत्ति होती है ।
भेद से अणु उत्पन्न होता है। न संघात से होता है और न भेद और संघात से--इन दोनों से नहीं होता है।
अनंतानंत परमाणुओं के समुदाय से निष्पन्न होकर भी कोई स्कंध अचाक्षुष होता है और कोई अचाक्षुष । सूक्ष्म परिणामवाले स्कंध का भेद होने पर वह अपनी
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