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जीव का उपकारी है | सुख-दुःख, जीवित-मरण, शरीर, वाक्-मन प्राणपना इन चार-चार भेद वाले द्विविध उपकारों को करता है ।
प्रयोगपरिणत पुद्गल ( पओगपरिणद पोग्गल )
प्रयोगपरिणताः - जीवव्यापारेण तथाविधपरिणतिमुपनीताः ।
पटादिषु कर्मादिषु वा ।
- स्था० स्था ३ । उ ३ । सू १८६ टीका
जीव की क्रियाओं द्वारा पुद्गल के अपने स्वरूप से अन्य स्वरूप में परिणत हो जाने को प्रयोगपरिणत पुद्गल कहते हैं ।
प्रसिद्ध गणितज्ञ प्रो० अलवर्ट आईंस्टीन लोक और अलोक की बताते हुए लिखते हैं- "लोक परिमित है, अलोक अपरिमित है । परिमित होने के कारण द्रव्य और शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती । बाहर उस शक्ति का ( द्रव्य ) अभाव है जो गति सहायक होती है । से धर्म द्रव्य है वही ईथर है और ईथर है वही धर्म द्रव्य है ।
यथा
पुद्गलास्त काय यद्यपि अनंत हैं, तथापि उसमें संघात ( मिलने ) और भेद ( पृथग् होने ) से उनका अनंतपन अनवस्थित है । इसलिए वह कृतयुग्मादि चारो राशि रूप होता है ।
प्रदेश रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के प्रदेश असंख्यात है । परस्पर तुल्य है और दूसरे प्रदेशों को अपेक्षा अल्प है । उससे जीवास्तकाय, पुद्गलास्तिकाय, अद्धासमय और आकाशास्तिकाय के प्रदेश उत्तरोत्तर अनंत गुण है ।
भेद रेखा
लोक के
लोक के स्थूल दृष्टि
द्वयणुकों से परमाणु सूक्ष्म तथा एकत्व होने से बहुत है और द्विप्रदेशी स्कंध परमाशुओं से स्थूल होने से अल्प है ।
परमाणु से अनंत प्रदेशी स्कंध तक एक अनंत अणु स्कंध तक द्विप्रदेशावगाढ़ होते अनंत प्रदेशी स्कंध त्रिप्रदेशावगाढ़ होते हैं । अनंत प्रदेशावगाढ़ स्कंध तक जानना चाहिए ।
प्रदेशार्थ से विचार करते हुए बताया गया है कि परमाणुओं से द्विप्रदेशी स्कंध बहुत है । परमाणु से अनंत प्रदेशी स्कंध के प्रदेश अनंत होते हैं ।
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प्रदेशावगाढ़ होते हैं और द्वयणुक से
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इसी प्रकार तीन प्रदेशी स्कंध से इसी प्रकार चतुष्प्रदेशावगाढ़ यावत्
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