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सकलाऽर्हत् अर्थसदित. जेणे, वली ते देवी केहवी ने ? तो के (हुंकार के० ) हुंकारनो (आराव के) शब्द तेणें करी (दूरीकृत के०) दूर कख्या डे (सुकृतजनवात केण) सुकृतनो करनारो एवो जे जनसमूह तेना (विघ्नप्रचारा के) विघ्नना प्रचार जेणे, वली ते देवी केहेवी , तो के (जिनवरचरणांनोज के) श्रीवीतरागनां चरणरूप कमल, तेने विषे (मुंगीसमाना के ) जमरी समान बे॥४॥५१॥ हवे पाक्षिकादि प्रतिक्रमण योग्य सूत्रां लखियें बैयें.
॥ अथ सकाऽर्हत् प्रारंजः॥ सकलात्प्रतिष्ठान, मधिष्ठानं शिवश्रियः ॥
नूर्जुवःस्वस्त्रयीशान,मात्यं प्रणिध्महे॥२॥ अर्थः-(आईत्यं के०)अरिहंतनो जे समूह, तेने अमो (प्रणिदध्महे के०) चित्तमांहे ध्यान करीयें बैयें. हवे ते आईत्य केहेवू डे ? तो के (सकल के०) समग्रने (अर्हत् के०) पूजवा- (प्रतिष्ठानं के) स्थानक , वली ते केह, डे ? तो के ( शिव श्रियः के) मोदरूप लक्ष्मीनु (अधिष्ठानं के०) स्था नक , वली ते केहवू डे ? तो के (जूः के०) मनुष्यलोक, (नुवः के० ) पाताललोक, (स्वःकेण) देवलोक, ए (त्रयी के०) त्रण लोक तेनुं (ईशानं के०) स्वामी ॥१॥
नामाकृतिव्यन्नावैः, पुनतस्त्रिजगजनम् ॥
क्षेत्रे काले च सर्वस्मि, नर्हतः समुपास्महे ॥२॥ अर्थः-(सर्वस्मिन् के०) सर्व एवां ( देने के०) सर्व एवां देवने विषे,(च के ) वली (काले के) समस्तकालनेविषे एटले अतीत, अनागत अने वर्तमान कालने विषे, ( नाम के) नामनिदेप, ते तीर्थकरनाम कर्मोदय जाणवो तथा (आकृति के ) स्थापनानिदेप, ते जिनप्रतिमा जाणवी. (अव्य के) अव्यनिदेप, ते जिनना जीव जे आगल थाशे, ते जाणवा, (जावैः के ) नावनिदेप, ते समवसरणने विषे बिराजमान श्रीसीमंधर स्वामीप्रमुख जाणवा. ए चार निदेपायें करी (त्रिजगऊनम् के ) त्रण जगतना जे जनो तेप्रत्ये (पुनतः के) पवित्र करनार एवा
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