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गुरुवंदन नाष्य अर्थसहित. ४५५ विरदंमि उवणा, गुरुवएसोव दंसणबं च ॥ जिणवि रदंमि जिणबि, ब सेवणा मंतणं सहलं ३०॥दारं॥१५॥ अर्थः-(गुरु के०) महोटा विशेष प्रतिरूपादि त्रीश (गुणजुत्तं के०) गुणे करी युक्त एवा (तु के०) निश्चे (गुरुं के०) गुरुने (गविजा के०) स्थापन करीने तेनी आगल प्रतिक्रमणादि क्रिया करीयें (अहवा के०) अथवा ( सकं के०) सादात् पूर्वोक्त गुणयुक्त एवा ( गुरुयनावे के०) गुरुनो अनाव उते ( तब के०) तत्र एटले ते गुरुने स्थानकें ( अका के०) अदादिक स्थापीने तेनी आगल क्रिया करीये ते अदादिक स्था पनाचार्य न होय तो ( नाणातियं के०) ज्ञानादिक त्रण एटले एक झान, बीजु दर्शन, त्रीजु चारित्र, ए त्रणेना उपकरण जे पोथी नोकरवा ली प्रमुख ले तेने ( उविज के०) स्थापीने तेनी आगल क्रिया करीयें. परंतु अगुरुने विषे गुरुबुद्धि आणीने तेनी आगल क्रिया करवी नहीं. केमके आगममा अगुरुने विषे जे गुरुबुझि आणवी तेने अत्यंत आकरूं लोकोत्तर मिथ्यात्व कर्वा ॥ २७ ॥ ___ हवे अदादिक जे कया ते कहे . एक (अरके के०) अ६ ते चंदन प्र सिफ मालानी स्थापना जाणवी, तेना अनावे ( वरामए के० ) वराटके एटले त्रण लीटीना कोमानी स्थापना करवी, (वा के० ) अथवा (क के० ) काष्ठ मामा मामी प्रमुख चंदनादिकनी पाटी आदिकनी स्थापना करवी, (पुढे के) पुस्तकनी स्थापना करवी, (अ के०) वली तेना अ जावें (चित्तकम्मे के ) चित्रकर्म ते गुरुनी मूर्तिनां चित्राम आलेख, श्र थवा गुरुनी काष्ठनी प्रतिमा ए पाठ श्रीअनुयोगहार सूत्रथी लखीयें बैयें, "से किंतं ठवणाणुमा जम वा अरके वा वराडए वा कठकम्मे वा पोबकम्मे वा लेपकम्मे वा चित्तकम्मे वा गंथिकम्मे वा वेढिकम्मे वा पूरिकम्मे वा सं घातिकम्मे वा एगे अणेगे वा सप्नाउ वा असनाउ वा ठवणा वित्ति एवं रीतें गुरुनी स्थापना करवी. ते बे प्रकारे जाणवी ते कहे, (सपाव मसनावं के०) एक सन्नावस्थापना अने बीजी असनाव स्थापना तिहां गुरुनी मूर्ति तथा प्रतिमादिकनी आकार सहित जे स्थापना ते सन्नाव स्थापना जाणवी, अने आकार विना अदादिकनी जे स्थापना करवी ते
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