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पच्चरकाण नाष्य अर्थसहित.
មច១ अपूर्ण पञ्चकाणे जमे तो पण पोरिसी जंग न थाय, पड़ी कोश्कना क हेवा उपरथी जाणवामां आवे के हजी लगण पोरिसीनो काल पूर्ण थयो नथी तेवारें पूर्वोक्त रीतें अर्बजुक्त रहे अने पोरिसीनो काल पूर्ण थया पली जमे ए साहुवयणेणं नामें श्रागार जाणवो.
हो ( तणु के०) शरीर तेनुं (सुबया के०) स्वस्थता जे निराबाध पणुं तेने ( तणु के ) समाधि (ति के) एम कहीयें एटला माटे ए सबसमाहिवत्तियागारेणं कहेवाय शहां तीव्रशूलादिक रोग उपने थके, आर्त रौषनी सर्वथा निराशें जे शरीरनी स्वस्थता ते सर्व समाधि कहीयें तत्पात्ययिक जे कारण ते सर्वसमाधिवर्तिताकार कहीये. ते समाधिने नि मित्तं जे औषध पथ्यादिकनी प्रवृत्तिने विषे अपूर्ण प्रत्याख्याने जमतां पण पच्चरकाण नंग थाय नहीं.
सातमुं (संघाश्कज के०) संघादिक- कोश् कार्य उपने थके वडेरानी आज्ञा पाले तेने (महत्तर के०) महत्तरागार कहीये, ते आवी रीतें के जे पच्चरकाण की, जे तेनी अनुपालनाथकी पण जो निर्धारानी अपेक्षायें विचारी तो महोटुं निर्जरा लान देतु कार्य , अने अन्य पुरुषांतरें ते कार्य असाध्य बे,बीजा को पुरुषथी थाय तेम नथी एवं को संघर्नु तथा
आदि शब्दथकी चैत्य ग्लानादिकना कार्य प्रयोजन ले तेहिज आकार ते महत्तराकार कहीयें. तिहां अपूर्ण कालें जमतां पञ्चकाण जंग न थाय.
आठमुं (गिहब के०) गृहस्थनी नजर पडे तथा (बंदा के०) सर्प बंदि वानादिकनी नजर पडे तेने (सागारी के०) सागारियागारेणं कहिये तिहां थागार एटले घर तेणे करी सहित जे जे तेने सागारिकहीये तेनी नजरें देखतां साधुने थाहार करवो कल्पे नही. केम के एथकी प्रवचनोपघातादिक बहु दोषनो संजव थाय माटें साधुने जमतां थकां जो सागारी श्रावी पडे अने ते जो चल होय एटले तरत जवावालो होय तो क्षणेक बेसी रहे अने तेने स्थिर रहेतो जाणे तो स्वाध्यायादिकना नंग पातकना जयथकी अन्यत्र जश्ने तेहिज श्रासने जमे तो पञ्चरकाण जंग न थाय. ए जेम गृह स्थने सागारिक कहीयें तेमज जेहनी दृष्टं देखतां अन्न खाश्ये ते पचे नहीं तेने पण सागारिक कहीयें तथा उपलदणें आदि शब्दथकी सर्प, अग्नि, प्रदीप, नरेती, पाणीनी रेख श्रावे तथा गृहपातादिक एटले घर पमतुं होय
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