Book Title: Pratikraman Sutra
Author(s): Shravak Bhimsinh Manek
Publisher: Shravak Bhimsinh Manek

View full book text
Previous | Next

Page 583
________________ स्तवनानि. ५६३ तप नीर, समकित गेड प्रगट होवे जी ॥ संतोष करी अहो वाम, पञ्च काण व्रत चोकी सोहे जी ॥७॥नासे कर्मरिपु चोर, समकित वृद फट्यो तिहां जी ॥ मांजर अनुनव रूप, उतरे चारित्र फल जिहां जी ॥ ए॥ शांति सुधारस वारी,पान करी सुख लीजीयें जी ॥ तंबोल सम.ल्यो स्वाद, जीवने संतोष रस कीजीयें जी ॥ १० ॥ बीज करो बावीश मास, उत्कृष्टी बावीश मासनी जी ॥ चो विहार उपवास, पालीये शील वसुधा सनी जी ॥ ११॥ आवश्यक दोय वार, पडिलेहण दोय लीजीयें जी ॥ देववंदन त्रण काल, मन वचकायायें कीजियें जी॥ १२ ॥ जजमणुं शुज चित्त, करि धरीयें संयोगथी जी ॥ जिनवाणी रस एम, पीजियें श्रुत उपयो गथी जी ॥ १३ ॥ण विध करीयें हो बीज, राग ने शेष दूरे करी जी ॥ केवल पद लहि तास, वरे मुक्ति उलट धरी जी ॥ १४ ॥ जिनपूजा गुरु नक्ति, विनय करी सेवो सदा जी ॥ पद्मविजयनो शिष्य, नक्ति पामे सुखसंपदा जी ॥ १५ ॥ इति ॥ ॥अथ पंचमी, लघुस्तवन लिख्यते ॥ पंचमीतप तमें करो रे प्राणी, जेम पामो निर्मल झान रे॥पहेढुं झा न ने पढ़ी क्रिया, नहिं को ज्ञान समान रे॥ पंचमी० ॥ १॥ नंदीसूत्रमा झान वखाएयु, ज्ञानना पांच प्रकार रे ॥ मति श्रुत अवधि ने मनःपर्यव, केवल एक उदार रे॥ पंचमी ॥२॥ मति अहावीश श्रुत चउदह वीश, अवधि ने असंख्य प्रकार रे ॥ दोय नेदें मनःपर्यव दाख्युं, केवल एक उ दार रे ॥ पंचमी ॥३॥ चंद्र सूर्य ग्रह नक्षत्र तारा, एकथी एक अपार रे ॥ केवल ज्ञान समुं नहीं को, लोकालोक प्रकाश रे ॥ पंचमी॥४॥ पारसनाथ प्रसादें करीने, महारी पूरो उमेद रे ॥ समयसुंदर कहे हुँ पण पामुं, शाननो पांचमो नेद रे ॥ पंचमी० ॥ ५ ॥ इति ॥ ॥अथ श्री अष्टमीनुं स्तवन लिख्यते ॥ ॥ हारे मारे गम धरमना सामा पचवीश देश जो, दीपे रे त्यां देश मगध सहुमां शिरें रे लो ॥ हारे मारे नगरी तेहमां राजगृही सुवि शेष जो, राजे रे त्यां श्रेणिक गाजे गजपरें रे लो ॥१॥ हारे मारे गाम नगर पुर पावन करता नाथ जो, विचरंता तीहां आवी वीर समोसख्या रे लो ॥ हां ॥ चउद सहस्स मुनिवरना साथें साथ जो, सूधा रे तप सं Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620