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कल्याणमंदिरस्तोत्र अर्थसहित. ३३७ एटले वृद्धिंगत थक्ष एवी . तथा आहिं चरण, तो युगल डे तथापि "अंनिसरोरुहाणां” ए बहु वचन लख्यु ते पुण्यत्वज्ञापनने माटें ॥४॥ हवे कवि स्तवननो उपसंहार करतो बतो तथा पोताना नाम
ने प्रकाश करतो तो कहे बे. श्वं समादितधियो विधिवजिनेंड, सांजोल्लसत्पुल ककंचुकितांगनागाः ॥ त्वदिबनिर्मलमुखांबुजब लदा, ये संस्तवं तव विनो रचयंति नव्याः॥४३॥ जननयनकुमुदचं,प्रनास्वराःस्वर्गसंपदो जुक्त्वा॥ ते विगलितमलनिचया, अचिरान्मोदं प्रपद्यते ॥४४॥ युग्मम् ॥ इति श्रीकल्याणमंदिरनामक
अष्टमस्मरणं समाप्तम् ॥७॥ अर्थः-( जिनेंड के० ) हे जिनें ! तथा ( विनो के०) हे स्वामिन् ! तथा (जननयनकुमुदचंड के०) जन जे मनुष्य तेना नेत्ररूप जे चंडविक ! सि कमल, तेने विषे चंगमा समान तेना संबोधनने विषे हे जननयनकु मुदचंड! अहिं अन्यंतरमां कवियें श्रीसिद्धसेन दिवाकराचार्य दीक्षा समय मां गुरुयें दीधेला कुमुदचंड एवा पोताना नामर्नु पण सूचन कझुंडे. (ये के) जे (नव्याः के०) नव्यप्राणीयो (श्वं के०) एम पूर्वोक्त प्रकारें (विधि वत् के०) विधिपूर्वक, (तव के०) तमारा (संस्तवं के०) स्तोत्रने (रचयंति के०) रचे ले (ते के०) जव्यप्राणीयो, (अचिरात् के०) थोमाएक कालमां (मोदं के०) अनंतान, दर्शन, चारित्र, वीर्य, स्वरूप निःश्रेयसने (प्रपy ते के०) पामे . शुं करीने पामे जे? तो के ( स्वर्गसंपदः के ) देवलोक नी संपदा सुखने (जुक्त्वा के०) जोगवीने, ते केवी स्वर्ग संपदा ? तो के (प्रजास्वराः के०) प्रकर्ष एटले अत्यंत जास्वर नाम देदीप्यमान एवीयो, तथा ते जव्यो केहवा ? तो के (समाहितधियः केय) समाधिवाली ध्या नयुक्त निश्चल बे बुद्धि जेनी एवा , वली केहवा जे? तो के ( सांस्रोत सत् के०) आकरो, उल्हास पामतो एवो ( पुलक के० ) रोमांच तेणें (कं चुकित के०) कंचुकें करी सहित ले (अंगनागाः के) शरीरनो देश
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