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प्रतिक्रमण सूत्र. रागादिक वैरी जेणे, तेणें करीने (प्रथित के) प्रसिद्ध ले (अवदात के ) प्रजाव जेनो एवं ने ॥ ४ ॥
देवेंज्वंद्य ! विदिताखिलवस्तुसार!, संसारतारक! विनो! जुवनाधिनाथ ॥ त्रायस्व देव! करुणाहृद
मां पुनीहि, सीदंतमद्य नयदव्यसनांबुराशेः ॥४१॥ अर्थः-(देवेंड के०) देवतानो जे इंश तेणें (वंद्य के०) वंदन करवा यो ग्य तत्संबोधने हे देवेंजवंद्य ! वली ( विदित के) जाएयु डे ( अखिल के) समय (वस्तु के०) वस्तुनुं (सार के०) रहस्य जेणे, तेना संबोधन मां हे विदिताखिलवस्तुसार! तथा (संसारतारक के) हे संसारसमुख थकी तारनार ! ( विनो के०) हे समर्थ ! तथा (जुवनाधिनाथ के) हे त्रिजुवनना नाथ ! तथा ( देव के) हे देव ! तथा ( करुणाहृद के०) करुणाना अह, उपलक्षणथी हे करुणाना समुद्र ! (अद्य के) हमणां (सीदंतं के ) सीदातो विषादने प्राप्त थयो एवो ( मां के० ) मुजने (जयद के० ) जयनो देनारो एवो (व्यसनांबुराशेः के०) व्यसननो जे समुज तेथकी (त्रायख के ) रक्षण करो अने (पुनीहि के) पापनो नाश करी पवित्र करो ॥४१॥
यद्यस्ति नाथ! प्रवदंघ्रिसरोरुहाणां, नक्तेः फलं कि मपि संततिसंचितायाः ॥ तन्मे त्वदेकशरणस्य शर एय!नूयाः, स्वामी त्वमेव जुवनेऽत्र नवांतरेऽपि ॥४॥ अर्थः-( नाथ के०) हे नाथ ! ( यदि के ) जो ( नवदंघिसरोरुहा णां के ) तमारां चरणारविंदसंबंधी (नक्तेः के ) नक्तिनुं (किमपि के०) कां पण (फलं के) फल (अस्ति के) ले (तत् के) तो ( शरण्य के ) हे शरणागतवत्सल ! ( त्वदेकशरणस्य के०) जेने तमारुंज एक शरण एवा ( मे के० ) मने (अत्र के) आ (जुवने के० ) लोकने विषे तथा (नवांतरेऽपि के०) नवांतरने द्रिये ( त्वमेव के) तमेज (वा मी के०) स्वामी (नूयाः के०) था. हवे पूर्वोक्त नक्ति केहवी ? तो के ( संततिसंचितायाः के) निरंतर संताननी परंपरायें संचेती
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