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प्रतिक्रमण सूत्र. (तव के० ) तमारा ( सान्निध्यतोऽपि के ) सान्निध्यथकी पण एटले त मारं वचनश्रवण तथा तमारु रूपदर्शन तो दूर रहो, परंतु तमारा सान्नि ध्यथकी पण (सचेतनोपि के०) चेतनायें करी सहित एवो पण एटले अ चेतन अशोक तो पुर रहो, पण चेतना सहित जे होय ते पण (कःके०) कोण ( नीरागतां के० ) नीरागताने एटले निर्ममत्वने वैराग्यने (न के०) नहिं (व्रजति के०) पामे ? अर्थात् तमारा सांनिध्यथी जीव अवश्य नी रागीज थाय ॥२४॥
हवे देवऽऽनिलकण सातमा प्रातिहार्यातिशयने कहे बे. नोनोः प्रमादमवधूय नजध्वमेन, मागत्य निति पुरि प्रति सार्थवादम् ॥ एतन्निवेदयति देव जग
त्रयाय, मन्ये नदन्ननिननः सुरउंनिस्ते ॥ २५॥ अर्थः-( मन्ये के ) हुँ एम मार्नु ढुं के, ( देव के०) हे देव! (ते के०) तमारो (सुरउंतिः के०) देवउंछनि जे , ते (अनिननः के०)
आकाशने अभिव्यापीने (नदन् के०) शब्दायमान थयो बतो (जगत्रया य के०) त्रण जगत्ने (एतत् के०) या प्रकारे निवेदयति के) निवेदन करे , जेम केः-(जोनोः के) हे जगत्रयजनो! तमें (प्रमादं के०) आ लस तेने ( अवधूय के ) त्याग करीने आगत्य के०) आवीने (एनं के) ए जे श्रीपार्श्वप्रनु तेने (नजध्वं के०) नजो. ते केवा पार्श्वप्रनु बे? तो के (निवृतिपुरिप्रति के०) निवृतिपुरि जे मोदपुरि ते प्रत्ये (सा र्थवाहं के०) मार्गवाहक एवा . अर्थात् ते सुरकुंकुनि कहे जे के हे लोको! तमें प्रमाद घर करीने मोददायक एवा पार्श्वप्रजुने नजो ॥ २५ ॥
हवे बत्रत्रयनामक आठमा प्रातिहार्यातिशयने कहे जे. नद्योतितेषु नवता नुवनेषु नाथ, तारान्वितो विधुर यं विहताधिकारः ॥ मुक्ताकलापकलितोवसितात
पत्र, व्याजात्रिधा धृत्ततनुर्बुवमन्युपेतः ॥२६॥ अर्थः-( नाथ के ) हे खामिन् ! ( अयं के०) था तमारा उपर जे त्रण बत्र , ते त्रण बत्र नथी, परंतु शुं जे ? तो के (मुक्ता के ) मोती
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