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जो धर्म तथा अधर्म से सर्वथा अनजान मनुष्य केवल कल्पित तर्कों के आधार पर ही अपने मन्तव्य का प्रतिपादन करते हैं, वे अपने कर्म-बंधन को तोड़ नहीं सकते, जैसे पक्षी पिंजरे को नहीं तोड़ पाता है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१/२/२२) अण्णाणं परमं दुक्खं, अण्णाणा जायते भयं ।
अण्णाणमूलो संसारो, विविहो सव्वदेहिणं ॥ अज्ञान महादुःख है । अज्ञान से भय उत्पन्न होता है। सब जीवों के संसार-परिभ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है ।
--इसिभासियाई ( २१/१) भावे णाणावरणातिणि पंको । ज्ञानावरण अर्थात् अज्ञान आभ्यन्तर-कीचड़ है ।
-निशीथ-चूर्णि-भाष्य (७०) नाणंपि हु मिच्छादिट्ठिस्स अण्णाणं । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी अज्ञान ही है ।
-विशेषावश्यक-भाष्य ( ५२०) अण्णाणमया भावा अण्णाणो चेव जायए भावो। अज्ञानमय भाव से अज्ञानमय भाव ही उत्पन्न होता है ।
-समयसार ( १२६)
अज्ञानी अन्नाणी किं काही, किं वा नाही सेयपावगं । अज्ञानी आत्मा क्या करेगा ? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगा ?
-दशवैकालिक (४/१०) जीवाजीवे अयाणतो, कहं सो नाहीइ संजमं?...
जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥ जो न जीव को जानता है और न अजीव को, वह संयम को कैसे जान ]
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