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चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइ वा बहुं । दंतसोहणमित्तं पि, उग्गहं सि अजाइया ॥ तं अप्पणा न गिण्हं ति, नो वि गिण्हावए परं। अन्नं वा गिण्हमाणं पि, नाणुजाणंति संजया ॥
चेतन-सहित हो अथवा चेतन-रहित, कोई भी वस्तु, कम हो या ज्यादा, यहाँ तक कि एक सींक तक भी पूर्ण संयमी साधक उसके स्वामी गृहस्थ की अनुमति के बिना न तो स्वयं ग्रहण करते हैं, न दूसरों को ग्रहण कराने के लिए प्रयत्न करते हैं और न ही ग्रहण करनेवाले का अनुमोदन ही करते हैं।
___ --दशवैकालिक (६/१३,१४)
तिव्वं तसे पाणिणो थावरे य, जे हिंसति आयसुहं पडुच्च । जे लूसए होइ अदत्तहारी, ण सिक्खई सेयवियस्स किंचि ॥
जो मनुष्य व्यक्तिगत सुख के लिए त्रस अथवा स्थावर जीवों का क्रूरभाव से घात करते हैं, जो हिंसक और चोर बनते हैं, वे जिन व्रतों को आदरणीय मानते हैं, उनका पालन किंचित् भी नहीं कर सकते ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/५/१/४) अदिन्नमन्नेसु य नो गहेज्जा। संयमी साधक बिना दी हुई दूसरों की वस्तु को ग्रहण न करे ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१०/२) जो बहुमुल्लं वत्थु अप्पयमुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे थोवे वि तूसेदि ॥ जो परदव्वं ण हरदि मायालोहेण कोहमाणेण ।
दिढचित्तो सुद्धमई अणुव्वई सो हवे तिदिओ ॥ जो व्यक्ति बहुमूल्य वस्तु को अल्प-मूल्य में नहीं लेता, दूसरे की भूली हुई वस्तु को भी नहीं उठाता और अल्पलाभ से भी सन्तुष्ट रहता है तथा कपट, लोभ, माया एवं क्रोध से पराये द्रव्य का हरण नहीं करता वह शुद्धमति दृढ़निश्चयी अचौर्य-अणुव्रती है ।
--कार्तिकेयानुप्रेक्षा ( ३३५-३३६)
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