Book Title: Path ke Pradip
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ त तेरे आनन्द को खोज, लेकिन दूसरे जीवो का आनन्द छीनने का तुझे अधिकार नही है । दूसरो की प्रसन्नता छीनकर तू प्रसन्न वनने की चेष्टा करेगा, तो एक दिन तेरी प्रसन्नता भी कोई टीन लेगा। करना तो यह है कि तू दूसरे जीवो को आनन्द से भर दे। दूसरो को प्रसन्नता से नव-पल्लवित कर दे, तू स्वय स्नेह-पल्लवित हो जायगा । वू निर्मल स्नेह का उपासक वन । L [ ५

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108