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शुद्धा है, स्नेह नही है | स्नेहहीन श्रद्धा भिखारिन है......... मांगती फिरती है। प्रीतियुक्त श्रद्धा सदैव समर्पण कराती है। परमात्मा के प्रति प्रीतिपूर्ण श्रद्धा होजाने पर समर्पण करना नही पडता, स्वतः हो जाता है।
ससार के लाखो दुःखो मे भी यदि हमारे पास स्नेहाधार परमात्मा है, तो हम दुःखी नही हो सकते। स्नेही की निकटता में दुःख ?
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