Book Title: Path ke Pradip
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 98
________________ . 5635 SA HindiMMA | ... [ १०० ] स्वार्थी मनुष्य दूसरे जीवो के सुख-दुःख का विचार ही नहीं कर सकता । फिर चाहे वह स्वार्थ किसी भी बात का हो । 'मेरा अपयश न हो,' यह भी एक स्वार्थ है और इसी वजह से रामचन्द्रजी ने सीताजी का त्याग कर दिया था न । यश का स्वार्थ भी कभी भयंकर बन जाता है | स्वार्थ का त्याग बहुत ही वडा है। है - I - cri NOUU [८७ 2024 NAMOH 4

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