Book Title: Path ke Pradip
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . ५ - *. kige . weKENERArraka पञ्च के प्रदीप iree Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VINMinik SH RamaANA MP444 DDAl ETRY - --- - PRASADHAI HAR MARTPHENOW ashikaran पर RIA VER TA HERE HAWUs YAali 524 मदनासा SNOW 5ze पेनिश्री भद्रगुप्त विजयी Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक हीराचन्द वैद पारसमल कटारिया मानद मत्री श्री विश्वकल्यारण प्रकाशन आत्मानन्द सभा भवन घीवालो का रास्ता, जयपुर-३ वि० सं० २०२६, कार्तिक जयपुर-३ (राज०) 'श्री विश्वकल्याण प्रकाशन ( हन्दी विभाग) श्रात्मानन्दममा भवन घी वालो माता द्वारा सप्रेम भेट मूल्य २ रुपये प्रथमावृत्ति. १००० मुद्रका अजन्ता प्रिन्टसं, जौहरी बाजार, जयपुर-३०२००३ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STAYE " :.: OFlder लेखक मुनिराज श्री भद्रगुप्तविजयजी श्री विश्वकल्याण प्रकाशन, जयपुर की हिन्दी साहित्य की पंचवर्षीय योजना के ' अन्तर्गत पांचवे वर्ष का प्रथम पुष्प पंच-वर्षीय योजना की १७वीं किताब Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ WALALOZIM - lib X1 VA SUNOD Sorry ? y NO d SA 9 US IN V BY C. NASZYou can VA OLTASKUU Ooh on IN Y Sans SI 22 YUL S ? Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन विश्वकल्याण प्रकाशन-जयपुर की पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत यह १७वी पुस्तक है । संस्था के पास कोई रिजर्व फंड नही होते हुये भी शंखेश्वरपार्श्वनाथ भगवंत के अचिन्त्य प्रभाव से संस्था अपने पवित्र ध्येय की ओर अग्रसर होती जा रही है। __ नये-नये सदस्य बनते जाते हैं और नयी-नयी पुस्तक प्रकाशित होती जा रही है। इस पुस्तक के पश्चात् 'अन्तरनाद' प्रकाशित होगी। संभवत. इस किताब के साथ ही 'अन्तरनाद' आप को भेज देंगे। निवेदक मानद मंत्री जयपुर १-१-७३ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथके दीय यहां जीवनपथ को प्रकाशित करने वाले १०८ दीपक जलाये गये। हैं। हाँ, मेरे जीवनपथ को तो प्रकाशित किया ही है... "अब आपके पास ये १०८ प्रदीप आ रहे है....."मोह-अज्ञान और दुबुद्धि के घोर अधकार से व्याप्त जीवनपथ को प्रकाशित करना कितना आवश्यक है ? आप इन प्रदीपो को अपने जीवनमदिर मे स्थापित करे, जीवनपथ पर स्थापित करे प्रदीपो के प्रकाश मे चलते रहे। यह मेरा दैनिक चिन्तन है ! आत्मा का संवेदन है और शास्त्रो का मननीय मनन है। चिन्तन के स्पन्दनो को लिखता रहता हूँ.. • मेरे मन को संतोष प्राप्त होता है--आपको आनन्द प्राप्त होगा। मेरी 'डायरी' से सु दर प्रेसकोपी श्रीयुत चन्दनमलजी लसोड़ [M A.] ने की है। वे धन्यवाद के पात्र हैं। श्री विश्वकल्याण प्रकाशन इस पुस्तक को प्रकाशित करता हुआ पंचमवर्ष मे प्रवेश करता है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K N 471 मुनि श्री भद्रगुप्त विजयजी म. सा. Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COORDAR डे नौजवान | प्रगति के पथ पर आगे बढो। गति में गुमराह मत हो । प्रगति मे प्रवल पुरुषार्थ, मजबूत मनोवल व महापुरुषो का मार्गदर्शन अपेक्षित है । चलो, अन्धकार को मिटा दो, प्रकाग तुम्हारे इन्तजार में है। A [ २ ] कहाँ पहुँचना है, लक्ष्य निश्चित करो । खूब सोच विचार कर निर्णय करो। फिर उस लक्ष्य तक पहुँचने का पुरुषार्थ आरभ करो। हिम्मत से आरम्भ करो। A P L Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३ ] क्या धर्म के बिना तुम मन की शान्ति प्राप्त कर सकते हो ? तो धर्म की कोई आवश्यकता नही ? मन की शान्ति के बिना ही जीवन जीना है तो धर्म की कोई आवश्यकता नही है । हाँ, मन की शान्ति के लिए आप धर्म के विना और किसी भी जगह फिरो, शान्ति नही मिलेगी। बताइये, आपने कहाँ से शान्ति प्राप्त की ? मैने तो धर्म से ही शान्ति प्राप्त की है। जीवन में वर्म को स्थान दो, शान्ति अवश्य मिलेगी। २ ] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ X VASAIRS TODAY [ ४ ] . . क्या आप अपने मन को समझे हो ? मन के विचारो को वासनाओ को और भावनाओ को समझे हो ? आप अपने मन को समझने की कोशिश करो। मन को समझे विना 'मेरा मन चचल है, यह शिकायत नहीं करनी चाहिये । मन को समझ कर मन को समझाने का प्रयत्न करो। मालिक तो आप है। मन आपका नौकर है। आप मालिक वन कर मन के साथ व्यवहार करें। Ant ROM TRA - MILK स S 44 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A TA PERI m Cornा यह सोचो कि अपना हित किस में है । हित माने स्वार्थ नही, मगर शुद्धि । आत्मा की शुद्धि । ' इस शुद्धि मे हित है, मुख है । गरीर शुद्धि के बाद विचारो की और भापा की शुद्धि का प्रयोग करो। शरीर की शुद्धि तक ही मत रुको। दूसरो का हित करने की भावना के साथ अपने हित के प्रति जाग्रत रहो । दूसरो का हित करने की क्षमता प्राप्त करो। . Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त तेरे आनन्द को खोज, लेकिन दूसरे जीवो का आनन्द छीनने का तुझे अधिकार नही है । दूसरो की प्रसन्नता छीनकर तू प्रसन्न वनने की चेष्टा करेगा, तो एक दिन तेरी प्रसन्नता भी कोई टीन लेगा। करना तो यह है कि तू दूसरे जीवो को आनन्द से भर दे। दूसरो को प्रसन्नता से नव-पल्लवित कर दे, तू स्वय स्नेह-पल्लवित हो जायगा । वू निर्मल स्नेह का उपासक वन । L [ ५ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] SAR KHAND जीवनमार्ग काटो से व्याप्त है। आकाश मेघाछन्न है। मार्गदर्शक कोई नहीं है और पगडडी धूल से छिप गई है । पथिक । जीवन यात्रा के पथिक | तू आगे बढ । निराश मत हो। हृदय मे से घबराहट दूर कर । मुख पर प्रसन्नता और दिल मे उल्लास लिये तू आगे बढ । परम कृपानिधि परमात्मा की दृष्टि तेरे पर है, यह ध्यान में रख । उन पर पूर्ण भरोसा कर ... तेरी जीवन यात्रा के वे पथ-प्रदर्शक हैं। Crs Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाह [ ८ ] CINE दख ही तो दृष्टि देता है ! तू दु खो से क्यो डरता है | आज जो तेरे पास विकसित दृष्टि है, दुःखो की देन है । दुखो से प्यार कर · 'जीवन तेरा आनन्दमय बन जायगा। दु.खो से दृष्टि प्राप्त करने का प्रयत्न कर। [६] HO कर्मों की प्रवलता का रुदन करने के बजाय परमात्मा की अनन्त शक्ति पर विश्वास करना श्रेष्ठ है। इससे मन निर्भय बनता है। म Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pad SERA TION RA A ENEmirime ALAM [ १० ] त निशक हो। मानले कि तेरे पास जितना सुख है, सुख के साधन हैं, सव करुणामय परमात्मा की देन है। तू जब तक यह विश्वास नही करेगा, तब तक परमात्मा के प्रति तेरे हृदय में प्रेम व श्रद्धा जाग्रत नही होगी। परमात्मा की उपासना को तेरे जीवन का लक्ष्य बनादे। घोर कर्म वन्धन भी परमात्मा की कृपा मे तत्काल टूट जाते हैं । तू अनुभव करके विश्वास स्थापित कर। LIL ETCGMTS - - - IP S - - Pra rautetwasana INDomenim . 6 BHAVAR म. Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] TOSAAS SMARAT HIJus FRAUD कर्मों के हाथो से कौन-कौन पराजित हुए, उनका इतिहास जानने से क्या फायदा ? खैर, जानकारी के लिए भले ही, उस दर्द-भरे व पराजय की आहो से कलकित इतिहास को जानलो, परन्तु जानकारी तो उनके इतिहास की करना है, जिन्होने कर्मो को चकनाचूर कर दिया। कर्मों पर विजय प्राप्त की। ऐसे उदाहरण, ऐसा इतिहास अपने पास रक्खो, जिससे वीरता की प्रेरणा मिलती रहे । कर्मों का भय दूर हो जाय और हम विजयी वनें। - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L AMALS W-YYA NIRom IIII SAUDIT ilaj KARO [ १२ ] पाप को पाप तो मानना ही पडेगा। दु खो का मूल पाप है, यह भी मानना पडेगा । पापो का आकर्षण तब ही टूट सकता है। पापो का आकर्षण टूट जाने के बाद पाप करने पर भी .. पाप हो जाने पर भी, कर्म बध शिथिल होगा । पाप को पाप मानकर, पापो से छुटकारा पाने के लिए योजना Plan वनाइये। दूसरे सब क्षेत्रो मे योजना बनाते है, तो इस क्षेत्र मे क्यो नही ? मरते समय पाप बहुत कम हो जाने चाहिये। NCE १० ] NER Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IAN [ १३ ] TION भा तन त क्या चाहता है ? कौन मी इच्छाएँ कर रहा है ? मै मना नही करता। तू इच्छाएँ कर, लेकिन ऐसी इच्छाएँ करना, जो तेरे स्वाधीन हो । ऐसी इच्छा मत करना, जिसमे पराधीनता हो । हाँ, तुझे विवेक रखना पडेगा । तू कहता है इच्छाएँ हो जाती है, करनी नही पडती । ठीक है, जो इच्छा हो जाय, उस पर तू इतना विचार करना'इस इच्छा की पूर्ति मैं स्वाधीन रहकर कर सकता हूँ?, नव करना। - - [ ११ A .KE. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MALJ ity Inामा [ १४ ] भविष्य के सकटो की कल्पना करके तू आज क्यो अशान्त बनता है ? छोड दे ऐमी तुच्छ कल्पनाएँ और मन प्रसन्न रख । ससार मे किसके जीवन मे संकट नही आते ? भोगी के जीवन मे सकट और योगी के जीवन में भी सकट | स्वार्थी के जीवन मे सकट और नि स्वार्थी के जीवन मे भी सकट | सकटो के सामने घुटने टेकने की आवश्यकता नहीं है, सकटो का वीरता से मुकावला करो। जो सकट आज तेरे सामने नहीं है, उसके भय से मुक्त हो जा। १२ ] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sy YNAA HT NEPONRN रANTA [ १५ ] द ख बाहर मे नही आता, दुख के वीज हमारी आत्मा मे ही पडे है । उनको खोद कर फेक दो फिर दुख पैदा ही नही होगे। दुख के ये वीज है-क्रोध, मान, माया और लोभ। ये वीज नही तो दुख नही! [१६] ATCHINT AIL त दूसरो के दोप क्यो देखता है? दूसरे के दोपो का विचार क्यो करता है ? तू छोड़ दे यह आदत। तेरा दोपपूर्ण व्यक्तित्व तेरी दोप-दृष्टि का ही फल है। - 2-6 4 . [ १३ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] pm CORE CULTUSIC देवराज इन्द्र प्रसन्न होकर कहे "ले यह तलवार विश्वविजयी वनेगा"।“ मै कहूँगा "मुझे विश्वविजय नहीं चाहिये।" "तो ले यह पारसमणि, विश्व की सम्पत्ति का मालिक बनेगा"। “ मैं कहूँगा. "मुझे सम्पत्ति का क्या करना है ?" वे कहेगे "तो ले ये वीज, वोना। इनसे जीव-जीव मे मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ्य प्रकट होगा। सुरभि से विश्व सुवासित हो उठेगा।" में हर्ष से नाच उठू गा और उन वीजो को लेकर आत्मभूमि मे वोऊ गा । दूसरो को भी दूंगा। १४ ] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NUARY [ १८ ] बो चीज जिस समय चाहिये, उस समय वह चीज नहीं मिलती है, तो मन अशान्त बन जाता है। , अशान्ति को मिटाने का एक सरल उपाय है : 'जिस समय जो मिले, उसमे से सन्तोष और आनन्द प्राप्त करो अथवा यह श्रद्धा धारण करो कि इस समय जो मै चाहता था, वह नही मिला, इसमें ही मेरा भला होने वाला होगा !' मन को प्रसन्न रखने की कला अपने पास होनी ही चाहिये । अन्यथा जीवन जीना मुश्किल हो जायगा। r ecommmm १५ ] - - Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ADU JHAN 4MRUT [ १६ ] स्पमाजवाद से क्या और साम्यवाद से क्या? जो वाद हमारे तन-मन के दुख न मिटा सके, ऐसे वादो मे हम क्यो उलझे ? तन-मन के दुखो को मिटाने वाला है, आत्मवाद। आत्मवादी बनें। आत्मा की अनन्तशक्ति अनन्तगुण और अविकारी स्वरूप में श्रद्धावान् बनें । अपनी आत्मा के समान ससार की सब आत्माओ को माने और किसी भी आत्मा को दुःखी न करे। S ROLU [ १६ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २० ] IAN भोग सुख मे डूब जाना अलग है और डुवकी (गोता) लगाना अलग है। भोग सुख में गोता लगाने वाला बाहर निकल आता है और त्याग के मार्ग पर आगे बढ़ता है। भारतीय संस्कृति मे अर्थ और काम कितना स्थान रखते है ? मात्र साधन रूप में। लक्ष्य तो है, मोक्ष । मोक्षमार्ग है, धर्म। अर्थ काम में डूबो मत ? गोता लगाना हो तो लगाकर वाहर निकलो और आगे वढो ? REER Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] NYO PARMANO chaव्य परमात्मा से मै क्या मागू ? मुझे श्रद्धा है कि परमात्मा देते है परन्तु मै क्या मागू ? मेरे - लिए जो आवश्यक साधन है, क्या मुझे नही मिले है ? जितने साधन मेरे पास है, मै उन साधनो का सदुपयोग नही कर रहा हूँ क्या मैं उनके सदुपयोग की कला मांगू ? हाँ, मनुष्य जीवन, पाँच इन्द्रिय, चिन्तनशील मन । वगैरह का सदुपयोग करना मुझे आजाए" "तो ? परमात्मा मुझे यह कला देदो। S १८ ] N Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LI AESE ला PDATO [ २२ ] खव तक मै पर्यायदृष्टा हूँ, तब तक शान्ति नही मिलेगी। मुझे द्रव्य दृष्टा बनना चाहिये । शुद्ध आत्मद्रव्य का चिन्तन शान्ति प्रदान कर सकता है। पर्यायदर्शन मे मात्र राग-द्वष है । Clil Hawa INVITAMIT [ २३ ] और कुछ आराधना नही होती है ? तो परमात्मा का नाम व परमात्मा की आकृति से स्नेह जोड दो। परमात्मा से सम्बन्ध स्थापित कर दो। ठठठ " [ १६ LA x NON N Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AP Sy SITAHIR ८R CMA [ २४ ] 1 Dhila IAITHIP CHAN हर व्यक्ति के अपने प्रश्न है, अपनी समस्याएँ हैं । यदि व्यक्ति के पास ज्ञानदृष्टि है, तो वह अपने प्रश्नो को इस प्रकार सुलझाने की चेष्टा करेगा कि नाना प्रश्न पैदा न हो। यदि ज्ञानदृष्टि नही है, तो प्रश्न सुलझाते-सुलझाते नया प्रश्न पैदा कर देगा। जीवन की समस्याओ को सुलझाने वाली ज्ञानदृष्टि प्राप्त करना अति आवश्यक है । ऐसी ज्ञानदृष्टि शास्त्रो के अध्ययन-परिशीलन से प्राप्त होती है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५ ] देश मे पवित्र आचारो का अवमूल्यन हो रहा है । मर्यादाओ की 'स्वातन्त्र्य' के नाम पर हत्या हो रही है और धर्म के नाम पर घृणा पैदा की जा रही है . ऐसी - परस्थिति मे सदाचारी वना रहना कितना मुश्किल है ? मर्यादाओ का पालन कितना कठोर है ? और धर्म पर श्रद्धा • • "कितनी विकट है ? देखो, विशाल दृष्टि से देखो, बदलती दुनियां को देखो .. । ठाठ २१ ] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २६ ] FORangahrm FAST HERA A ZE ढख क्या है ? अपनी कल्पना मात्र है । कल्पना बदल दो। कल्पना बदलने की भी एक कला है। किसी भी दुख को मुख मे बदला जा सकता है, परन्तु यह कला हमारे पास नही होने के कारण हम दु.खी वने रहते है। महापुरुषो के जीवनचरित्र यदि हम इस दृष्टि से पढ़ें, तो यह कला प्राप्त हो सकती है। हमारे पूर्वकालीन महापुरुषो के जीवन ऐसी कला से भरपूर थे। अरे, भगवान् महावीर स्वामी का जीवन ही देखो • “कला मिल जायेगी। - m [ २२ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PITO CALL [ २७ ] "लोक खलु आधार. सर्वेपा ब्रह्मचारीणाम्' । साधुपुरुपो का आधार लोक है, अर्थात् समाज है । आर्य संस्कृति के आधार पर बनी हुई समाज-व्यवस्था साधुपुरुषो की साधना मे सहायक वन सकती है , यदि समाज व्यवस्था आर्यसस्कृति से पृथक् हो जाय तो साधुपुरुषो की साधना क्षतिग्रस्त हो जाय। इसलिए समाज व्यवस्था के प्रति साधुपुरुषो को लक्ष्य करना चाहिये, उपेक्षा नही करना चाहिये। CUD २३ ] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] Skni AM LITEN पतिदिन नया ज्ञान प्राप्त करे। ऐसा ज्ञान प्राप्त करें कि जो मन पर छाये हुए अज्ञान के अन्धकार को मिटादे ओर मन को प्रकाशित कर दे। अपनी शान्ति " प्रसन्नता, पवित्रता बनाये रखने के लिए वह ज्ञान उपयोगी बने । ऐसा ज्ञान ऋषि-महऋषिओ के ग्रन्थो से मिलता है, ऐसा मेरा अनुभव है। ग्रन्थो के शब्द पर चिन्तन करना चाहिये। मात्र विद्वत्ता के लिए पढने से फायदा नही है। ACC 6 २४ ] THADA Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६] RRIP MP4 स्पदाचारो के पालन से जीवन मे शान्ति मिलती है। सदाचारो को छोडकर सुख पाने का पुरुषार्थ करने से सुख के साथ अशान्ति मिलती है । अशान्ति में सुख का उपभोग नही हो सकता। - [ ३० ] बह्मचर्य का पालन दुष्कर है , परन्तु दृष्टि की निर्मलता बढाने से दुष्कर भी मुकर वन जाता है। दृष्टिदोष से बचते रहो। [ २५ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३१ ] -- MCa बोलने दो दुनिया को ! दुनिया की तरफ मत देखो। इस प्रकार तो दुनिया ने कइयो की बुराई की है। दुनिया का यही ढग है। लेकिन एक बात सुनलो | दुनिया से अपनी प्रशसा सुनने की कामना तो नही है न ? हाँ, दुनिया की प्रशसा सुननी है, तो बुराई भी सुनना पडेगी । स्व प्रशंसा की भूख भयकर है, उमको ही मिटादो। दुनिया की प्रशसा से क्या और निन्दा से क्या? क्षणिक आनन्द | परमात्मा की दृष्टि मे निमंल बनते चलो । ALLIONA N ARTA २६ ] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] SHI Dia HARY TICCOM मांडवगढ के महामत्री पेथडशाह का जीवन चरित्र मननीय है। अनेक पहलओ से मैने उनका जीवन देखा है"..." मुझे अत्यन्त प्रेरणादायी लगा है। स्वर्णसिद्धि के प्रयोग में प्रचुर हिंसा देखकर आबू के पहाड पर भगवान के सामने रो पड़े थे और पुन. स्वर्णसिद्धि न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी। ३२ वर्ष की युवावस्था मे ब्रह्मचर्य का पालन करने की प्रतिज्ञा ले ली थी और मनसावचसा-कायेन उसका पालन किया था। [२७, Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एम pertAM [ ३३ ] Pra hti इससे भी ज्यादा सुनलो । राजा की रानी लीलावती का ज्वर मिटाने के लिए अपनी शाल दी '' "तो आल आया ! राजा ने ही दोनो को कलकित किया ." उस समय महामत्री ने अपनी ही सलामती नही सोची"; प्राणो का खतरा मोल लेकर लीलावती को अपनी ही हवेली में गुप्तरूप से रखा और १ लाख नवकार जपवाये । स्वय स्वस्थ रहे, प्रसन्न रहे और सकट को टाला । - ACTROHTAS FOTyws Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FSA [ ३४ ] NAINA ound Y यदि आप स्वय शास्त्र नही पढ सकते हैं, तो शास्त्रज्ञानी का सत्सग करे । यदि आप स्वय चिन्तको के साथ सम्पर्क बनाये रखे। यदि आप स्वय मोक्षमार्ग पर नही चल सकते तो किसी का सहयोग लेकर चलते रहे ! परन्तु निराग होकर, भयभीत होकर बैठे न रहे। जिन्दगी छोटी है और काम ज्यादा है' 'मजिल दूर है " • 'वैठने का समय नही है। १12 DAN २६ ] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [ ३५ ] B. MAR "पाप सुख देने वाले लगते है। जो सुख दे, वह पाप नही ।" कैसी भ्रामक मान्यता हृदय मे दृढ हो गई है ? हृदय मे ऐसी मान्यता प्रतिष्ठित हो और बाहर से धर्मक्रियाएँ करे। वाह" . कैसी हमारी श्रद्धा है । अरे भैया, पापो से सुख मिलता तो दुनिया मे सुखी लोग 'मेजोरिटी' मे होते | हैं क्या सुखी की 'मेजोरीटी' ? नही । दुखी ही ज्यादा है। क्यो? पापी ज्यादा है, इसलिये । 8810 ३० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G Tut [ ३६ ] दसरे मनुष्य का मन समझकर, उसको सुधारने का प्रयत्न करो। उसके मन के प्रश्न समझने की आवश्यकता है। मन को धोने की प्रक्रिया का ज्ञान होना चाहिये। इसलिए दूसरो के प्रति करुणा चाहिये, धिक्कार नही। -- [ ३७ ] I ) वन जीना है कि मेरी ओर से किसी को भी अशान्ति न हो, दु.ख न हो | क्या मेरी यह कामना इस संसार मे सफल बन सकती है ? N Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HEATU AT VA RASA ar Aau [ ३८ ] कम से कम आवश्यकताओ मे जीवन व्यतीत हो जाय तो कितना अच्छा । आवश्यकताओ की कोई सीमा ही नही । ५-५० वर्ष की जिन्दगी और ५-२५ हजार आवश्यकता । अनुकूल साधनो की उपलब्धि मे मनवचन-काया की कितनी शक्ति चली जाती है । क्या मानव जीवन इसीलिये है ? अनुकूलताओ की भीड मे भगवान् से मै कैसे मिलू ? कैसे वांत करू? ANA [ ३२ AS, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 { ENERARg BI [ ३६ ] ) मात्र पत्थर-आप कौन है ? वीतराग-मैं वीतराग हूँ। पत्थर-वीतराग कैसे ? वीतराग-मेरे मे राग नही है, द्वेष नहीं है। पत्थर-अच्छा, तव तो मै भी वीतराग ! मेरे मे भी राग नही है, द्वेष नही है। वीतराग-ठीक है, राग-द्वप तेरे मे नही है, लेकिन पापाण की कठोरता तो है न ? सर्व जीवो के प्रति करुणाभाव कहाँ है? पत्थर वीनराग को झुक गया वीतराग ने पत्थर को XX [३३ 604-1 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . " UCU Gilal P/ENU PHA अपना वाह्यरूप दिया · 'वीतराग की मूर्ति बनी पापण-वीतराग का अभेद मिलन हुआ • ." विश्व मे दोनो की कीर्ति बढ गई। वीतरागता के साथ सकल विश्व के प्रति अन्नतकरुणा परमात्मा की विशेषता है । वीतरागता मात्र तो पत्थर मे भी है ! परमात्मा की अनन्तकरुणा के पात्र बने । OGY ३४ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1-5TORS Del सर DN । CATTR [ ४० ] SONOTAOK LWA इम परम सुख का मार्ग बताते AN DOO है, इसका अर्थ यह नही है कि हम परम सुखी हो गये हैं। हमने प्राचीन ग्रन्थो मे जो परम सुख का मार्ग देखा, उसे आपको वताया। सभव है कि आपको यह मार्ग पसन्द आजाय और मार्ग बताने वाला उस मार्ग पर न भी चले! वह स्वय' नही चलता है इसलिये वह खराव ? नही । ट्राफिक पुलिस एक जगह खडा ही रहता है और रास्ता बताता है क्या वह खराव है ? - [ ३५ 3019 PAL 78ay "TD NE . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NEE WWMR ARVAS [ ४१ ] J JNTRA sim FaralyVडान तम मुझसे जो चाहते हो, वही मै देना चाहता हूँ • अपना आपस का प्रेम बढेगा। तुम मुझ से जो चाहते हो, मै देना नही चाहता हूँ.. 'तुम्हारे प्रेम की कसौटी होगी। तुम मुझसे जो नही चाहते हो, मै वही देना चाहता हूँ । यहाँ सघर्ष शुरू होता है। तुम मुझसे कुछ लेना-देना नही चाहते और मै भी। बस । अपना प्रेम मिट जाता है ! अत. लेते भी रहो और देते भी रहो। उसमे विवेक दोनो पक्ष मे आवश्यक है। AL Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 13 [ ४२ ] SHI Mlhan दसरो को सुधारना है ? मात्र उपदेश से यह काम नही होगा। जिसको सुधारना है, उसकी आप के प्रति स्नेहयुक्त श्रद्धा है ? फिर ज्यादा उपदेश की आवश्यकता नही है । आपके इशारे से ही वह सलथगामी बनेगा। [ ४३ ] MARI P ahal ज्ञानी ज्ञानदृष्टि से जो कदम उठाता है, उसका भक्त मात्र-श्रद्धा से अनुसरण करता है ...... उसको ज्ञानदृष्टि की आवश्यकता नही MAN CTETTE [ ३७ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] भले ही हम बडे ज्ञानी न बन 2 24 52- CA " सके, परन्तु बडे ज्ञानी को पहिचान सकें और उसके प्रति प्रीतिपूर्ण श्रद्धा वाले भी बन सकें, तो हमारा कल्याण निश्चित है । श्रद्धा माने श्रद्धा वहाँ शका- . कुग का नही होना चाहिए। जहाँ शका वहाँ श्रद्धा नही | ज्ञानी पुरुप की हमारी कल्पना इतनी ही होना चाहिए कि हम उसके प्रति आदरयुक्त बने रहे। जानी का अर्थ यदि 'सर्वगुणसम्पन्न' करेगे तो वर्तमान विश्व मे कोई ऐमा ज्ञानी मिलेगा? - - - - - - y ~ W T 1654 ALTEE HAPA SAN amantrorearmer २८ ] AL AE Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INE (CISAGAR BAHAR THAN [ ४५ ] राक वालक तीसरी कक्षा मे ATM X पढता था । एक दिन उसने अपनी माँ से कहा-“माँ मेरे मास्टर सा तो मात्र मेट्रिक तक पढे हुए हैं, मै उनके पास नही पढू गा!" माँ समझदार थी, उसने कहा__ "वेटा, तू उनके पास मेट्रिक तक तो पढ़ सकता है . फिर आगे नये मास्टर सा. खोजेगे !" दूसरे का विकास देखने के साथ-साथ हम कहाँ है, यह तो सोचे। H EI . [ ३६ . Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N RA [ ४६ ] IAOram । आन्तरिक विकास किसी भी अवस्था में हो सकता है। हम जिस अवस्था में हैं, उसी मे से सोचे कि “मेरी आत्मदशा वर्तमान मे कैसी है ? राग और द्वेष से मै कैसे छुटकारा पाऊँ ? बाह्यविकास पुण्याधीन माना जाता है, परन्तु आन्तरिक विकास पुन्याधीन मात्र नही है । आन्तरिक विकास के लिए आवश्यक पुण्योदय हमे मिल गया है । आन्तरिक विकास का प्रारभ ' आज से ही कर सकते हैं। करना FIRHNA ४० ] Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा [ ४७ ] CAM vity सिद्धि के लिए शक्ति चाहिये। गक्ति श्रद्धा से प्राप्त होती है । परमात्मा के प्रति परम श्रद्धा से शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। शक्ति की उपलब्धि से जीवन मुक्ति प्राप्त करता है । अनन्त शक्तिमय परमात्मा की शरण मे ही मानव जीवन को गान्ति है। शरण भाव से विकास की आवश्यकता है। आन्तरिक भावो मे गरणवृत्ति का सम्मिश्रण हो। मेरी यह कामना है कि परमात्मकृपा से मैं शक्तिसम्पन्न वनू। । [४१ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Vipoem [ ४८ ] (अन्तर्मुख जीवन के प्रति प्रीति Forea utOROP IPAT LAUN MER होती जा रही है। श्रमण जीवन मे श्रमणत्व का आनन्द अन्तमुखता से प्राप्त हो सकता है, ऐसा निर्णय हो रहा है। बाह्य धर्मप्रवृत्ति, धर्म प्रसार की प्रवृत्ति से भी निवृत्त होना श्रमण जीवन मे आवश्यक है। स्व-आनन्द के लिये यह सोचता हूँ, परन्तु विश्व मे जब साधुता पर घोर आक्रमण होते हुए देखता हूँ, तव धर्मरक्षा के लिये बलिदान की भावना जाग्रत हो उठती है। OYOOO JP t ___ ४२ ] Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAR [४६ ] यश-कीर्ति एव प्रसिद्धि की कामना से मुक्त होना आवश्यक है, अन्यथा मन.शान्ति दुर्लभ है । प्रसिद्धि की स्पर्धा मे अनेक नुकसान भी है, उन्हे देखना चाहिये। सिद्धि · 'आत्मसिद्धि के जीवन में विश्व-प्रसिद्धि का कार्य उसके अनुरूप नही है । प्रसिद्धि का प्रयोजन अन्य जीवो को धर्मोन्मुख बनाना होता है, परन्तु वहाँ आत्मा की अत्यन्त जानन स्थिति अपेक्षित है। [ ४३ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CTREpan [ ५० ] rectories R NROLLY AN जिस व्यक्ति को स्वयं वदलना नही है, उसको तू नही बदल सकता है। व्यक्ति को बदलने का कार्य मात्र उपदेश से नहीं होगा। व्यक्ति से Personal सम्पर्क स्थापित कर, उसके संयोग परिस्थिति का अध्ययन कर मार्गदर्शन देना होगा। तभी व्यक्ति वदल सकता है। हर व्यक्ति की अपनी इच्छाएँ होती है ..." उन इच्छाओ को मोडने का कार्य सरल नही है। - toue ४४ ] . Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ COM [ ५१ ] IN तोर्यभूमि तपोभूमि वन जाय, साधना-भूमि बन जाय तो मनुप्य को मन शान्ति और आत्मकल्याण प्राप्त हो सकता है। परमात्मा का दर्शन व पूजन साधना की दृष्टि से होना चाहिये। उसमे अनुशासन चाहिये । शान्ति के लिए इधर-उधर भटकने वालो को ऐसे तीर्थ मिल जाय तो? तीर्थ है, परन्तु तीर्थों का रूप वदलता जा रहा है। मूल स्वरूप आवृत्त हो रहा है । [ ४५ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IANS [ ५२ ] DHAN अच्छा आदमी नहीं मिलता है, यह शिकायत सर्वत्र सुनाई देती है, परन्तु शिकायत करने वाला स्वय अच्छा आदमी बनने की चेष्टा करता है क्या ? बुरे आदमियो को अच्छे आदमियो से अपने स्वार्थ पूर्ण करना है | धर्महीन, गुणहीन श्रीमन्त और सत्ताधारी लोग अच्छे आदमियो की बलि दे रहे है। इसीलिये राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक जीवन-मन्दिर ध्वस्त हो रहे है। Prat. A ... Por . क Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IAN [ ५३ ] A साधना के पथपर चलने वालो को, जब विपाद-ग्रस्त देखता हूँ और मै उनको विपाद-मुक्त करने मे अपने आपको असमर्थ पाता हूँ, तव में स्वय विषाद-ग्रस्त बन जाता हूँ। मेरे प्रिय साधक की भी अशान्ति मै नही निटा सकता, अपनी इस विवशता पर मुझे रोष आता है। जिस व्यक्ति ने ससार के सर्व संवधो का विच्छेद क्यिा, उस व्यक्ति को भी वन्धन ! भयकर वन्धन !! ४७ 1 Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AM मा [ ५४ ] CAL - LRAIL MOPAN. (COMPETI प्रच्छी मनमोहक बाते करने वालो का जीवन व्यवहार जब कलुषित दिखाई देता है, तव दर्शक के मन मे न केवल उनके प्रति अरुचि होती है, अपितु अच्छी बातो के प्रति भी घृणा । पैदा हो जाती है । N [ ५५ ] देखो, आपका मन कही परिग्रह के भार से दब तो नहीं गया ? भारी मन ही परिग्रह है। मन भार हीन बनादो। मन को मुक्त करो। अह और मम के भार से मन को मुक्त करो। ४८ ] Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HD alKHEL Haru Nar ] ५६ ] सुख की खोज बन्द करो। दुःखो से मित्रता करना सीखो । सुख की अपेक्षा शान्ति का मूल्य ज्यादा करो। दुःख से शान्ति की ओर जाने की प्रेरणा मिलती है। दुख और दुःखी को दिव्य-दृष्टि से देखो। तुम्हारी अन्तश्चेतना जाग्रत होगी। परमात्मा से सुख नही शान्ति की याचना करो। सुख मे शान्ति नही है, दुख मे शान्ति की खोज सफल वनती है। सुख के लिए मारे-मारे न फिरो । शान्ति के लिए सोचो। १ [ ४६ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SA भार" YARE W [ ५७ ] N . टा मन को स्वस्थ बनाना आवश्यक है। इसके लिए धर्म-ध्यान होना चाहिये । धर्म ध्यान से मन.स्वास्थ्य प्राप्त होता है । धर्मध्यान से ही कषाय मन्दता आती है और परमात्मपद की ओर गति होती है। रुको मत, धर्मध्यान के लिए तत्पर बनो। सव प्रश्नो का हल धर्मध्यान मे मिलेगा। सब अगान्ति धर्मध्यान से मिट जायगी। प्रतिक्षण धर्मध्यान हो सकता है। - - Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५८ ] anter 1STRICT क्या-तू मुविधाओ का सुख चाहता है ? ये ही दुख है। सुविधाओ मे सुख की कल्पना, भ्रम है | मानव तू सोच-विचार सुविधाओ के मुख मे पूर्णविराम कहाँ है ? ___इच्छाओ की सफलता का सुख क्या तू चाहता है ? इच्छाओ का अन्त कहाँ है ? इच्छाओ से मुक्त होने पर जो सुखानुभव होता है, उसका अनुभव करना आवश्यक है । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UPM WAY71 HNAS + [ ५६ ] Ve आपकी लडकी कुरूप होगी, खोट वाली होगी, तो क्या कोई उससे शादी करना चाहेगा? वैसे ही धर्मक्रियाएँ यदि सुन्दर नही होगी ......"धर्मक्रिया करने वालों ने उनका सौन्दर्य नष्ट कर दिया होगा, तो क्या दूसरे उन क्रियाओं से प्रेम करेंगे ? जीवन मे उन्हे अपनायेंगे ? क्रिया मे सौन्दर्य चाहिए, मनुष्य को उस क्रिया मे क्षणिक तृप्ति भी चाहिये.... ..... अन्यथा कोई क्रिया क्यो करेगा? M Pos ५२ ] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म [६० ] PORN AJMER THI क्या परमात्मा के बिना जीवन अधूरा लगता है ? परमात्मकृपा के विना भी जीवन चलता है न ? फिर परमात्मा की भक्ति क्यो? प्रीति के बिना भक्ति नही हो सकती। प्रीति .."प्रियतम के विरह मे व्याकुलता पैदा करती है और प्रियतम के सम्पर्क में निमग्नता प्रकट करती है । परमात्मा के विरह मे व्याकुलता नही है .. 'तो देर है परमात्मपद की प्राप्ति मे। REATREKULSHEmmSEPATTI - - MMEN Rummy Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PRAKAR NRNA 7 [ ६१ ] - - A मन मे कितने प्रश्न है ? कितनी समस्याएँ है ? जब तक इन प्रश्नों का समाधान नही करेंगे स्थिरता दूर है। मन का समाधान करे .." दवाव मत डालें । दमन के बजाय शमन हितकारी है। HD TTA TATEST MAU [ ६२ ] (डरो मत, देखो और करो। डरने से क्या ? ससार के द्रष्टा वनने मे ही शान्ति है । राग-द्वेप से मुक्त दर्शन ही शान्ति है। INE HA Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ &ULI चिन्तन करना है तो ज्ञान चाहिये । विचारो से मुक्त होना है तो इच्छामो से मुक्ति चाहिये । जिनमे ज्ञान भी न हो और जो इच्छाओ से मुक्त भी न हो, ऐसे व्यक्ति कभी शान्ति प्राप्त नही कर सकते । केवल शान्ति ... शान्ति की रट लगाने से शान्ति नही मिलती । शान्ति का सही उपाय करे । ज्ञान के विना चिन्तन कैसा ? इच्छामुक्ति के बिना निर्विकल्प स्थिति कैसी? nts [ ५५ RE 42 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - TAGS [ ६४ ] FEAR BLIA प्राप्त इच्छाएँ स्वप्न मे प्रकट होती है। स्वप्न मे तो सच्चा । मनुष्य प्रकट होता है ! वहाँ दम्भ नही चलता । स्वप्नावस्था के अध्ययन से “मै वास्तव मे कैसा हैं", इसका पता लग जाता है। कभी-कभी मनुष्य का भावी भी स्वप्न मे साकार हो जाता है। जो कुछ बुरा है, उसको प्राप्त करने की इच्छा को तीव्र मत बनाओ। धीरे-धीरे उन इच्छाओ का शमन करो। -- OCTom GILA ५६) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ /ET 5: JUST HOLD) JA का [ ६५ ] जितने प्रश्न है, उतने समाधान है । शास्त्र क्या है ? प्रश्नो का समाधान ही तो । समाधान ऐसे हो कि नये प्रश्न पैदा ही न हो, तब समता आती है। जब तक प्रश्न है, तव तक समता नहीं है । श्रद्धावान् जीव दूसरो के द्वारा दिये गये समाधान से तृप्त होता है, बुद्धिमान् जीव स्वयं समाधान ढूढता है । यदि वह शास्त्रो व ग्रन्थो के अध्ययन से समाधान ढूढता है, तो महान् चिन्तक बन जाता है। । ५७ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भPAHAR MAKON KAur का Thanti देखा, परन्तु सोचा नही । चखा, परन्तु अनुभव नही किया। पुरुपार्थ किया, परन्तु पाया कुछ नही । फिर जीवन का क्या अर्थ? मित्र, क्या बताऊँ ? लोग सोचते ही नही, अनुभव करते ही नही....."फिर क्या पायें। कहते हैं-"हमने कुछ पाया नही " कैसे पायें ? सुख-दुख के चक्र से बाहर निकलें तब न सुख-दुःख के चक्र मे सही चिन्तन को स्थान कहाँ ? T ५८ ] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६७ ] TORMA । CALAMANG 4mmm एक राजा अपने द्वार पर आये प्रथम भिक्षुक की इच्छा पूर्ण करता था। एक दिन एक फकीर आया । उसने अपने पात्र को सोना मोहरो से भर देने की इच्छा बताई। राजा भरने लगा, परन्तु पात्र भरता ही नही था ! राजा ने अपनी सारी सम्पत्ति पात्र में डाल दी. . . पात्र नही भरा। राजा ने पूछा-'यह पात्र कैसा अजीब है. ... . !! यह किस चीज का बना, हुआ है ?" फकीर ने कहा-"मनुष्य के हृदय से यह पात्र बना है" • •l! Shoppos [ ५६ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M [६८ Ca AN मधुर शब्द सन्तप्त मन को शान्ति देता है अथवा अशान्ति मे कमी करता है; फिर मधुर शब्द की हमे अपेक्षा नही रखनी चाहिये। जहां तक बने, मधुर शब्द दूसरो को दो ..."स्वय दूसरो से अपेक्षा न करो। CATERIA [६६ ] निर्भय बनो । निर्भयता ही आत्मोत्थान की Master Key है। जहाँ तक 'मैं और मेरा' है, वहाँ - . तक ही भय है। STU Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७० ] तारक"."उद्धारक तत्त्व तो विश्व में सदैव व सर्वत्र विद्यमान है। हमे उस तत्त्व के प्रति अभिमुख होना है। अभिमुख होना माने पात्र होना। परमात्मतत्त्व तो जैसा चौथे आरे मे था, वैसा ही आज है। हम उसका सहारा लें और भव सागर तैरने लग जयो। 1 परिवर्तनशील ससार मे ज्यादा समय बिताना उचित नही । परमात्मा का सान्निध्य शीघ्र प्राप्त कर निर्भय बने । [६१ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PAN TOR s VAR MAYA [ ७१ ] . पीति के विना श्रद्धा कैसी ? भक्ति के विना विश्वास कैसा ? श्रद्धा मे स्नेह के मिश्रण के विना सम्बन्ध नही जुड़ सकता । परमात्मा मे क्या हमारी स्नेहमिश्रित श्रद्धा है ? परमात्मा के प्रति स्नेहयुक्त श्रद्धा से हमारा हृदय भरपूर है ? - परमात्मतत्त्व को केवल बुद्धि से समझने की बात छोड दो । बुद्धि से .. बुद्धि के बन्धनो से मुक्त होकर परमात्मा के प्रति स्नेहयुक्त बनो। स्नेह से ही सम्बन्ध बधता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७२ ] शुद्धा है, स्नेह नही है | स्नेहहीन श्रद्धा भिखारिन है......... मांगती फिरती है। प्रीतियुक्त श्रद्धा सदैव समर्पण कराती है। परमात्मा के प्रति प्रीतिपूर्ण श्रद्धा होजाने पर समर्पण करना नही पडता, स्वतः हो जाता है। ससार के लाखो दुःखो मे भी यदि हमारे पास स्नेहाधार परमात्मा है, तो हम दुःखी नही हो सकते। स्नेही की निकटता में दुःख ? VIPOST mers S onommar , Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pund [ ७३ ] - RESS . धर्म करने वाले....... अर्थात् धर्मक्रिया करने वाले धर्मध्यान ही नही जानते । धर्मध्यान के विना धर्मक्रिया कैसी ? परमात्मपूजन करने वाले परमात्मस्वरूप का चिन्तन नही करते ... फिर पूजन कैसा ? ध्याता ध्यान के विना ध्येय में लीन नही बन सकता है। ध्येयलीनता के बिना ध्येय प्राप्ति कैसे हो सकती है ? धर्मध्यान मे मन को लगाना ही चाहिये। L Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७४ ] YKOVESMS मोक्ष मुख का अभिलाषी प्रशम सुख का अभिलाषी नही ? कैसी बात है, यह ।। प्रशम सुख की अभिलाषा वाला ही मोक्ष सुख पा सकता है, यह सत्य क्या मोक्षार्थी नही जानता होगा ? फिर प्रशम सुख पाने का प्रयत्न क्यो नही करे ? उसका जीवन ही वह प्रशम मुख के अनुकूल क्यो न जीये ? प्रशम सुख का अनुभव ही मोक्षमुख पाने के लिये बाध्य करता है। 6818 5 Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Naram RAO [ ७५ ] सम्यग् दर्शन-ज्ञान-चारित्र की जीवनस्पर्शी आराधना कैसे हो? जान का सम्बन्ध दृष्टि से, दर्शन (श्रद्धा) का हृदय से और चारित्र का सम्बन्ध नाभि से स्थापित करे। RAN - be AULA Yanालर [७६ ] दृष्टि ज्ञानमय बन जाय और नाभि सयमपूत बन जाय ... " मोक्ष दूर नहीं है। BEST 1845CS Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७७ ] कर्तव्यनिष्ठा अतिमहत्वपूर्ण तत्त्व है । जब मनुष्य अपने कर्तव्य को भूल जाता है, औचित्यभग करता है, तो अप्रिय बनता जाता है। मनुष्य की प्रियता औचित्य पालन से सम्बन्धित है। सर्वत्र अपने औचित्य का खयाल करें। अपने औचित्य पालन के प्रति जाग्रत रहें और दूसरो के औचित्य भग की उपेक्षा करें। 1 . Area 61 [ ६७ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७८ ] AAYE जब किसी व्यक्ति की मृत्यु के समाचार मिलते हैं, तब विचार आता है 'बस, वह चला गया ? ५०-६० वर्ष का जीवन ' ' 'इस छोटे से जीवन के लिए उसने कितना जाल फैलाया? कितना परिश्रम किया ? वह तो चला गया... "पीछे सब पड़ा रहा ' जीवनमोह .."जीवन सजाने का मोह ही तो जीव को भ्रमित करता है। रोज हजारो जीवन समाप्त होते है.... "हजारो जन्म लेते है । कैमा अजीव है, संसार का यह चक्र !! ६८ ] Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७६ ] N ANIA edit जन्म..."जीवन और मृत्यु' " यह सृष्टि का क्रम है। उत्पत्ति, स्थिति और लय ! निरन्तर परिवर्तन । परिवर्तनशील विश्व मे जो सदैव स्थिर है, उसको तो मै देवता ही नही हूँ और परिवर्तनशील को स्थिर बनाने की फिक्र में परेशान हूँ। जीवन का स्वाभाविक प्रवाह मृत्यु की ओर है, इस सत्य को नही जानता हुआ ...."जीवन को विता रहा हूँ। जन्म ही न हो तो? जन्म का बन्धन ही टूट जाय तो? M ROM [६६ SANE Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rad [८० ] L सामाजिक जीवन मे ही वन्धन है, नियम है। सामाजिक प्रतिष्ठा का मोह ही बन्धनो मे वद्ध करता है। निर्बन्ध जीवन जीना है तो समाज से मुक्त आध्यात्मिक जीवन जीना चाहिये । सामाजिक सुविधाओ के बिना जीवन जीने की शक्ति उपार्जित करना चाहिये । सामाजिक जीवन मे भौतिक सुखो की कुछ प्राप्ति हो सकती है, परन्तु घोर अशान्ति को भी स्वीकार करना पड़ता है। DOMe ७० ] Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८१ ] । YAN स्पब लोग अपने सुख, अपने आनन्द " , "अपनी सुविधाओ के लिए तो प्रयत्न करते हैं | तो मै अपनी शान्ति के लिए प्रयत्न क्यो न करूं ? तो मै अपने आत्महित के लिए प्रयत्न क्यो न करूं ? परोपकार और परमार्थ भी क्या है ? मनुष्य अपने आनन्द के लिए ही तो परोपकार व परमार्थ करता है । अपने आत्मा से आनन्द पाने वाला दुनिया की दृष्टि में शायद स्वार्थी भी दिखे ... इससे क्या मतलव ? । KAHd TE th DO C [७१ GINAL Sy Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - [८२ ] अंधे मनुष्य को कहना कि "देखो सूर्य का प्रकाश कितना तेजस्वी है ।" अधे के लिए यह बात क्या महत्व रखती है ? अंधे को प्रकाश बताने का कोई मतलव नही अधे को तो दृष्टि दो? . .. ARRIOR [८३ ] खहाँ उपचार की आवश्यकता है, वहां उपदेश कुछ भी नही कर सकता। आज उपचार की जगह उपदेश दिया जा रहा है। HTTA parmireoमम्म SpreaWAA ७२ ] 4E Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DAAN NAS [ ८४ ) ANI । SHANT एक व्यक्ति के तन के , दु.ख को दूसरा व्यक्ति मिटा सकता है । मिटाने का प्रयत्न कर सकता है अथवा देख तो सकता ही है, परन्तु मन के दु.ख तो बताये जाय, तव ही मिटाये जा सकते हैं। हम अपने मन के दु ख को दूसरो को वतायें ही नही तो दूसरा क्या कर सकता है। तव स्वय ही मन की अशान्ति का उपाय करें। मन के दु.खो से ही मनुष्य ज्यादा परेशान है। COMLOD [ ७३ Doto FY . YO KE Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ८५ ] FIRTA त उसको चाहता है, इसलिये वह तुझे चाहे ही, ऐसा नियम नहीं है। क्या तुझे जो चाहते है, उनको तू चाहता है ? मन के प्रश्नो का ऐसा समाधान करे, जिस समाधान से मन शान्ति का अनुभव करे। सव शास्त्रो, ग्रन्थो, कितावो आदि से यही तो पढना है | मन के समाधान की कु जियाँ । सदैव प्रसन्न रहने का यही मार्ग है। 'वह क्यो नहीं चाहता ?' इस प्रश्न का समाधान नही है क्या? PARALA WikO % DOL अ dramas Deep to . 29 FAS JAG ya Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE ALAN [ ८६ ] Rad दनिया का सोचने का ढग दूसरा है। तुझे दूसरे ढंग से सोचना चाहिये। दुनिया का सोचने का ढग अशान्ति पैदा करता है। तू जानी है। तू भी ससारी अज्ञानी की तरह सोचता है। N इसीलिये तो ज्ञानी दुनिया का ज्यादा नहीं करते। करते है तो दुनिया की सुनते नहीं, दुनिया को सुनाते है। NC-A -tant 52424 [७५ TRAL 1M परmamamimalaya Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 3] of A PAN eNSI सर्वत्र भय और लालच का साम्राज्य छाया हुआ है। धर्मक्षेत्र में भी भय और लालच कितने व्यापक है ? नरक का भय और स्वर्ग का लालच ! दुखों का भय और सुखो का लालच । ___ भय से धर्म करना इतना बुरा नही समझा जाता जितना सुखो के लालच से | भय और लालच दोनो वृत्तियां बुरी हैं। निर्भय और निरीह होना नितान्त आवश्यक है। N U MA ७६ ] Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PIN [८८ ] CARRESI छोटे-छोटे, मामूली दु.खो के प्रति मन केन्द्रित मत करो। इसी तरह छोटी-छोटी बातो की शिकायते मत करो । इस जीवन मे तो जन्म को जो सब दुखो की जड है, उसको मिटाने का पुरुषार्थ करना है । दु खो से डरकर भागने की बजाय दु.खो को सहन करने की शक्ति बढानी चाहिये । स्वाभाविक रूप से दु.खो को सहन करना चाहिये। मन भारी नही होना चाहिये। दुखो की शिकायत करने से क्या लाभ ? - IYA Com [ ७७ IS Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । [८६ ] किमी के जीवन की चिन्ता करने से क्या ? परन्तु फिर भी चिन्ता हो ही जाती है। जिसके प्रति स्नेह होता है, उसके जीवन की चिन्ता हो ही जाती है। इस चिन्ता से तभी मुक्ति मिल सकती है, जबकि ज्ञानदशा जाग्रत हो। ATMAS - [.६० ] कौन किसके लिए जीता है ? कोई नही। सब अपने लिए ही जीवन जीते है। जीते-जीते दूसरो का भला हो जाय तो अच्छा है। ७८ ] Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L [ १] - लाममा दःखो का स्वागत हो | WelCome | इस जीवन मे जितने दुखो को आना हो, आजांय, तो अच्छा है। शारीरिक, मानसिक व सामाजिक दुःखो को आने दो। प्रसन्नता के साथ दु खो का स्वागत करें। दु.खो का अनादर करने से दुख वापिस नहीं लौटते । अनादर करने से ही यदि दुःख चले जाते तो, इस दुनिया मे कोई दुखी नही होता । फिर क्यो अनादर करें? अत. स्वागत हो ! दु.खो का स्वागत हो! Ky - ~ Romanpraorat Pramom M [ ७६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MAAN +SS. H PRANST [ २ ] AL Karki पापी के प्रति घृणा क्यों करनी चाहिये ? पापी के प्रति करुणा ही करे। धिक्कार करने से तो पापों के प्रति हमारा मन एकाग्र वन जाता है। फिर धीरे-धीरे पापों के प्रति आकर्षण पैदा होता है और आगे चलकर वह स्वय पापी वन जाता है। पापी के प्रति करुणा ही श्रेष्ठ है। करुणा से उसके उद्धार की भावना पंदा होती है । करुणा से मन स्वस्थ । रहता है। अत. हृदय करुणा से सदैव स्निग्ध रहे। उससे सदैव करुणा बरसती रहे। ८० ] Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Kes [ ६३ ] WIK 4 . CA. प्रपनी भूमिका को समझो । NATURE AM Tiatun भूमिका.के कर्तव्यो को समझो। वर्तमान भूमिका के कर्तव्यो को नही समझने वाला मनुष्य उच्चतर भूमिकाओ की बात करता है । अपनी भूमिका सोचना चाहिये, तव अपने कर्तव्यो के प्रति लक्ष्य केन्द्रित कर पुरुषार्थ करना चाहिये। तव विकास होता है, तब उन्नति होती है । परमात्मा जिनेश्वरदेव ने मनुष्य की सब भूमिकामो को लेकर उचित कर्तव्यो का उपदेश दिया है। CLI [८१ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MINS · [ ६४ ], GAR THIANP कोमलता के विना हृदय मे श्रद्धा कैसे रह सकती है ? प्रथम, हृदय को कोमल होना चाहिये, कठोरता का त्याग करना चाहिये। परमात्मा, सद्गुरु और सत्य के प्रति कोमल हृदय की श्रंद्धा होनी चाहिये । श्रद्धा से कर्तव्य निष्ठा पनपती है। श्रद्धा से कर्तव्यपालन की शक्ति पैदा होती है। श्रद्धाहीन हृदय अनेक पिशाचो की समशानभूमि बन . जाता है। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TA TALK [ ६५ ] सब विचारो से मुक्त मन की अनुभूति करने जैसी है। विचारो से मुक्त मन का आह्लाद अपूर्व होता है, जो शब्दो मे नही कहा जा सकता। विचारो का जाल ही तो बन्धन है ! इन बन्धनो मे ही दु.ख और अशान्ति है। म ध्यान की महत्ता यहाँ है। ध्यान को जीवन मे महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिये। ORYTIO [ ८३ Tv Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६६ ] RAMER किस जीव की कितनी योग्यता है, यह सोच-विचार कर ही उससे आशा करो । योग्यता निर्णय स्वस्थ और मध्यस्थ बन कर करो। इससे कोई व्यक्ति सर्वथा अयोग्य नही दिखाई देगा। [ ६७] . HIT में चाहता हूँ कि मेरे निमित्त कोई जीव दुखी न हो । फिर भी मैं कभी निमित्त बन जाता हूँ, मेरा यह दुर्भाग्य नही तो क्या ? TTTTTIPRE a ८४ ] Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८] जिस धर्म मे मोक्ष देने की शक्ति है, स्वर्ग देने की शक्ति है, उस । धर्म मे क्या इस जीवन के दुःखो को मिटाने की शक्ति नहीं है ? धर्म की शक्ति पर विश्वास स्थापित करना नितान्त आवश्यक है। कर्मों की शक्ति से धर्म की शक्ति उच्चतम है। धर्म की शरण लेने से ही धर्म की शक्ति का परिचय मिलता है। निःशक होकर धर्म की शरण में जाना चाहिये। धर्म की शक्ति पर पूर्ण विश्वास करें। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न SAM [ ६६ ] ALMA.. इन्द्रिय और विषयो के सम्पर्क से राग, द्वेप और मोह पैदा होता है। जहाँ तक हो सके इन्द्रियों का विषयो से सम्पर्क ही मत होने दो। यदि हो गया, तो तोड दो। तोडने के लिए ज्ञानदृष्टि चाहिये। तोडने के लिए जागृति चाहिये । 06Boo RA . Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 5635 SA HindiMMA | ... [ १०० ] स्वार्थी मनुष्य दूसरे जीवो के सुख-दुःख का विचार ही नहीं कर सकता । फिर चाहे वह स्वार्थ किसी भी बात का हो । 'मेरा अपयश न हो,' यह भी एक स्वार्थ है और इसी वजह से रामचन्द्रजी ने सीताजी का त्याग कर दिया था न । यश का स्वार्थ भी कभी भयंकर बन जाता है | स्वार्थ का त्याग बहुत ही वडा है। है - I - cri NOUU [८७ 2024 NAMOH 4 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०१ ] जहाँ तक हम दुनिया मे रहें, वहाँ तक तो विशेष चिन्ता नही; परन्तु जब दुनिया हमारे मन मे बस जाय तव भय है, खतरा है। " " नाश है | भले ही हम दुनिया मे रहे, हमारे मन मे दुनिया का प्रवेश नहीं होना चाहिये । हमारे मन मे तो परमात्मा का ही निवास बना रहना चाहिये । जिसके मन मे दुनिया बस गई, उसका पतन ही हुआ "विनाश ही हुआ समझो। ८८ ] Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०२ ] . प्रभात के पुष्पो की सुवास, नीरव निशा का संगीत और भगवान् अंशुमालि का प्रकाश । सदैव जन जीवन को प्रफुल्लित, आनन्दित व हर्पित वनाये रक्खें! शील की सुवास, श्रद्धा का सगीत और ज्ञान का प्रकाश सब जीवो को प्राप्त हो • • • • •सव की आत्माएं उन्नति के पथ पर अग्रमर हो--ऐसी मेरी पवित्र कामनाएँ सदा बनी रहे' [ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०३ ] . । HAXECE VIRA खब तक मनुष्य ज्ञान की गहराई में प्रवेश नही करता तब तक ज्ञानानन्द प्राप्त नही कर सकता। आत्मानन्द का अनुभव नहीं कर सकता। ज्ञान की गहराई मे ही समत्व की प्राप्ति है। ज्ञान की ऊपर की सतह पर तो अभिमान का मगरमच्छ फिरता रहता है। सामान्य मनुष्य गहराई पसन्द नही करता, विस्तार ज्यादा पसन्द करता है, कुए से तालाब को ज्यादा पसन्द करता है । TEE HUS क ६० ] Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०४ ] V यदि आपके पास ज्ञान की गहराई नही है, भले ही क्रियाओ का विस्तार हो, तो सभावना है कि आप क्रियामार्ग से कभी भी फिसल जाओगे | तालाव जल्दी । सूख जाता है. 'ताप पडा नही और तालाब सूखा नही | विषय कपायो के ताप से कई क्रियावान् सूख गये ..."ज्ञान का गहरा कुआ सूखता नही " भयकर गर्मी में भी वह शीतल पानी देता रहता है ! M20KS Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०५ ] HTMLAN CHUT जानी पुरुप स्वय के मन का तो समाधान अवश्य कर सकता है, परन्तु अज्ञानी के मन का समाधान कर ही सके, ऐसा नियम नही है। कर भी सके और नही भी कर सके | भगवान् महावीर परमात्मा प्रियदर्शना साध्वी को नही समझा पाये, लेकिन उसी को कु भकार श्रावक ने समझा दिया था। BREA240 Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IAN [ १०६ ] पा VASTE अनुभव की भूख नही है तो मात्र चर्चा ही चर्चा | भोजन का भूखा मनुष्य भोजन की चर्चा पसन्द नहीं करता, उसको भोजन चाहिये। धर्म की भूख लगी है, तो धर्म की चर्चा हो ही नही सकती, धर्म का भूखा तो धर्म का अनुभव करने मे ही पुरुषार्थ करेगा। आजकल धर्म की चर्चा वढगई है . 'धर्म का आचरण घट गया है। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १०७ ] ११ इमारे सामने दो मनुष्य खडे है: एक है, गुणवान् धर्मात्मा और दूसरा है गुणहीन धर्मात्मा। क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभना, अहिंसा, सत्य आदि गुणो से सुशोभित धर्मात्मा भले ही धर्म की बाह्य क्रिया कुछ कम करता है, फिर भी हमारे हृदय को वह आकृष्ट करता है। दूसरा मनुष्य धर्म की वाह्य क्रियाएँ ज्यादा करता है, परन्तु उसमे क्षमा नही नम्रता नही, सरलता नही, निर्लोभता नही अर्थात् गुण नही हैं, तो वह हमारी आत्मा को आकर्षित नही करता। वह - अपनी आत्मा को भी सन्तुष्ट नही कर सकता। अत. गुणवान् धर्मात्मा बनने का पुरुषार्थ करें। ASNA OOO UMAR ITY A PART CVw Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m X [ १०८ ] ध्यान करना है ? परमात्मा का ध्यान करना है ? तो एक काम करो : मन पर से विकल्पो व विकारो का भार उतार दो। विकल्प और विकार ही हमे ध्यान में स्थिर नही होने देते है। दुनिया भर के विचार और विषय सुखो के विकार, मन को अस्थिर चचल, उद्विग्न और सन्तप्त करते है। विचारो से मुक्त वनो, विकारो से मुक्त बनो, परमात्मध्यान मे मग्न हो जाओगे। CASH , [ ६५ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 国 “是不是 它, Page #108 -------------------------------------------------------------------------- _