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________________ पथके दीय यहां जीवनपथ को प्रकाशित करने वाले १०८ दीपक जलाये गये। हैं। हाँ, मेरे जीवनपथ को तो प्रकाशित किया ही है... "अब आपके पास ये १०८ प्रदीप आ रहे है....."मोह-अज्ञान और दुबुद्धि के घोर अधकार से व्याप्त जीवनपथ को प्रकाशित करना कितना आवश्यक है ? आप इन प्रदीपो को अपने जीवनमदिर मे स्थापित करे, जीवनपथ पर स्थापित करे प्रदीपो के प्रकाश मे चलते रहे। यह मेरा दैनिक चिन्तन है ! आत्मा का संवेदन है और शास्त्रो का मननीय मनन है। चिन्तन के स्पन्दनो को लिखता रहता हूँ.. • मेरे मन को संतोष प्राप्त होता है--आपको आनन्द प्राप्त होगा। मेरी 'डायरी' से सु दर प्रेसकोपी श्रीयुत चन्दनमलजी लसोड़ [M A.] ने की है। वे धन्यवाद के पात्र हैं। श्री विश्वकल्याण प्रकाशन इस पुस्तक को प्रकाशित करता हुआ पंचमवर्ष मे प्रवेश करता है।
SR No.010744
Book TitlePath ke Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadraguptavijay
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year1973
Total Pages108
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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