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इमारे सामने दो मनुष्य खडे है: एक है, गुणवान् धर्मात्मा और दूसरा है गुणहीन धर्मात्मा। क्षमा, नम्रता, सरलता, निर्लोभना, अहिंसा, सत्य आदि गुणो से सुशोभित धर्मात्मा भले ही धर्म की बाह्य क्रिया कुछ कम करता है, फिर भी हमारे हृदय को वह आकृष्ट करता है। दूसरा मनुष्य धर्म की वाह्य क्रियाएँ ज्यादा करता है, परन्तु उसमे क्षमा नही नम्रता नही, सरलता नही, निर्लोभता नही अर्थात् गुण नही हैं, तो वह हमारी आत्मा को आकर्षित नही करता। वह - अपनी आत्मा को भी सन्तुष्ट नही कर सकता। अत. गुणवान् धर्मात्मा बनने का पुरुषार्थ करें।
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