Book Title: Path ke Pradip
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 51
________________ N RA [ ४६ ] IAOram । आन्तरिक विकास किसी भी अवस्था में हो सकता है। हम जिस अवस्था में हैं, उसी मे से सोचे कि “मेरी आत्मदशा वर्तमान मे कैसी है ? राग और द्वेष से मै कैसे छुटकारा पाऊँ ? बाह्यविकास पुण्याधीन माना जाता है, परन्तु आन्तरिक विकास पुन्याधीन मात्र नही है । आन्तरिक विकास के लिए आवश्यक पुण्योदय हमे मिल गया है । आन्तरिक विकास का प्रारभ ' आज से ही कर सकते हैं। करना FIRHNA ४० ]

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