Book Title: Path ke Pradip
Author(s): Bhadraguptavijay
Publisher: Vishvakalyan Prakashan Trust Mehsana

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Page 53
________________ Vipoem [ ४८ ] (अन्तर्मुख जीवन के प्रति प्रीति Forea utOROP IPAT LAUN MER होती जा रही है। श्रमण जीवन मे श्रमणत्व का आनन्द अन्तमुखता से प्राप्त हो सकता है, ऐसा निर्णय हो रहा है। बाह्य धर्मप्रवृत्ति, धर्म प्रसार की प्रवृत्ति से भी निवृत्त होना श्रमण जीवन मे आवश्यक है। स्व-आनन्द के लिये यह सोचता हूँ, परन्तु विश्व मे जब साधुता पर घोर आक्रमण होते हुए देखता हूँ, तव धर्मरक्षा के लिये बलिदान की भावना जाग्रत हो उठती है। OYOOO JP t ___ ४२ ]

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