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पञ्चास्तिकाय परिशीलन यहाँ कालद्रव्य को 'परिवर्तन लिंग' जो नाम दिया है. इसके दो कारण हैं ह एक तो यह कि छहों द्रव्यों में परिवर्तन या परिणमन होता है, उसमें कालद्रव्य की निमित्तता है। जब भी किसी भी द्रव्य में जो भी परिणमन या परिवर्तन होगा; उसके अपने पाँच समवायों में निमित्त समवाय के रूप में कालद्रव्य ही होगा।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि प्रत्येक पर्याय के परिणमन में या प्रत्येक कार्य के होने में पाँच समवाय अर्थात् पाँच कारण होते हैं ह्र स्वभाव, पुरुषार्थ, होनहार, काल और निमित्त । इनमें प्रारंभ के चार कारण तो स्वद्रव्यरूप उपादान में ही होते हैं और पाँचवाँ कारण निमित्तरूप परद्रव्य होता है। इसप्रकार कालद्रव्य छहों द्रव्यों के परिवर्तन में कारण हैं, अत: इसे परिवर्तन लिंग कहा है।
दूसरा कारण यह है कि द्रव्यों के पर्यायरूप परिणमन से ही कालद्रव्य की पहचान होती है। पुद्गलादि का परिवर्तन ही जिसका लिंग है अर्थात् जिसकी पहचान है, वह परिवर्तन लिंग है।
देखो, कालद्रव्य आँखों से दिखाई तो देता नहीं है, पुद्गलादि में जो परिवर्तन होता है, वह कार्य होता है, तो उसका कोई निमित्त कारण भी होना चाहिए ह्र इसप्रकार परिवर्तनरूप चिह्न द्वारा काल का अनुमान होता है। इसलिए काल परिवर्तन लिंग है तथा पुद्गलादि के परिवर्तन द्वारा कालद्रव्य की पर्यायें समय आदि ज्ञात होते हैं, इसलिए भी काल परिवर्तन लिंग है। कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं :
(दोहा) गुन परजै करि विविध है, अस्तिकायको रूप। गुन परजै सो दरव है, तातै वस्तु अनूप।।४५।।
(सवैया तैईसा) देवसरूप धरौ नर छाँडिकै,चेतन एक दोऊ संग ठाने । जाको विनास उदोत है ताहीको, सोई सदा थिर लोक प्रवान ।। आनकै मानत आन उदै, विनसै पुनि आन रहै कोऊ आने । तातें है एक ही वस्तु मैं अस्ति, सोई त्रिक रूप जिनेस बखानै।।४४।।
पंचास्तिकाय : उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य (गाथा १ से २६)
एक अस्तिकाय द्रव्य अपने गुण व पर्यायों के भेद से विविध प्रकार का है। द्रव्यगुण पर्यायवान अनुपम वस्तु है। नवभव-नरपर्याय छोड़कर देवपर्याय में गया तब चेतन रूप जीव तो नहीं है, जिसका व्यय होता है उसी का उत्पाद होता है, ध्रुव भी नहीं रहता है। अन्य मत वाले ऐसा मानते हैं कि - अन्य का उदय हुआ, विनाश किसी अन्य का हुआ और ध्रुव कोई तीसरा ही रहा, परन्तु जिनमत में तो एक ही वस्तु उत्पाद-व्यय व ध्रुव रूप से तीन रूप में रहती है।
__ "यद्यपि किसी भी द्रव्य की पर्याय पर के कारण न हुई है, न हो रही है और न होगी। आत्मा जो विकाररूप परिणमा है, वह भी अपना गुण-पर्यायों से ही परिणमा है, पर के कारण नहीं। अर्थ समय का ऐसा ही स्वभाव है। जैसा अर्थ समय का स्वभाव है, वैसा ही ज्ञान समय उसे जानता है और वैसा ही वाणी में आता है।........
यदि कोई द्रव्य काल के कारण परिणमें तो उस द्रव्य का द्रव्यपना ही कहाँ रहा ? कर्म के कारण विकार नहीं होता और कालद्रव्य के कारण सिद्ध भगवान को नहीं परिणमना पड़ता, द्रव्य स्वयं ही तीनों काल अपनी अवस्थारूप से परिणमता है........"
यहाँ इस गाथा का और तदनुसार गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी का अभिप्राय यह है कि सभी द्रव्य पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलंबी हैं। परद्रव्य के कारण परिणमन नहीं होता । हाँ, जो भी किसी भी द्रव्य में स्वभावतः अपने में स्वचतुष्टय रूप से परिणमन होता है, उसमें पाँचों समवाय सहज स्वतः होते ही हैं; निमित्त समवाय के रूप में कालद्रव्य का अस्तित्व भी वहाँ होता ही है।
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१.श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद सन् ५२ फरवरी के प्रवचन से ।