Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 213
________________ गाथा - १३४ विगत गाथा में कहा है कि ह्र कर्म का फल मूर्त इन्द्रियों द्वारा भोगा जाता है, इससे सिद्ध है कि कर्म मूर्तिक हैं। प्रस्तुत गाथा में कह रहे हैं कि मूर्त कर्म का मूर्त कर्म के साथ बंध होता है तथा अमूर्त जीव मूर्तकर्म को अवगाह देता है तथा मूर्त पुद्गल का अमूर्त जीव के साथ अवगाह होता है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न मुत्तो फासदि मुत्तं मुत्तो मुत्तेण बंधमणुहवदि । जीवो मुत्तिविरहिदो गाहदि ते तेहिं उग्गहदि।।१३४।। (हरिगीत) मूर्त का स्पर्श मूरत, मूर्त बँधते मूर्त से | आत्मा अमूरत करम मूरत, अन्योन्य अवगाहन लहें।।१३४|| मूर्त मूर्त को स्पर्श करता है, मूर्त मूर्त के साथ बन्ध को प्राप्त होता है; किन्तु मूर्तत्व रहित जीव मूर्त कर्मों को अवगाह देता है और मूर्तकर्म मूर्तरहित जीव को अवगाह देता है। तात्पर्य यह है कि जीव कर्मों को तथा कर्म जीवों को परस्पर अवगाह देते हैं। इस विषय में श्री आचार्य अमृतचन्द्रदेव कहते हैं कि ह्र यहाँ इस लोक में संसारी जीवों में अनादि संतति से प्रवर्तता हुआ मूर्तकर्म विद्यमान है। वह स्पर्शादि वाला होने के कारण आगामी मूर्तकर्मों से स्पर्श करता है, इसकारण मूर्त का मूर्त के साथ स्निग्ध गुण के वश बंध होता है। __अब अमूर्त जीव का मूर्त कर्म के साथ जो बंध होता वह बताते हैं। निश्चयनय से अमूर्त जीव अनादि मूर्तकर्म जिसका निमित्त है, ऐसे रागादि पुण्य-पाप पदार्थ (गाथा १३१ से १३४) ४०९ परिणाम द्वारा स्निग्ध वर्तता हुआ मूर्तकर्मों को विशिष्ट रूप से अवगाहता है और उस रागादि परिणाम के निमित्त से ज्ञानावरणादि कर्म परिणाम को प्राप्त होते हैं, ऐसे मूर्तकर्म भी जीव को विशिष्ट रूप से अवगाहते हैं। यह अमूर्त जीव और मूर्त कर्म का अन्योन्य अवगाह स्वरूप बंध का प्रकार है। इसप्रकार अमूर्त जीव का भी मूर्त कर्म के साथ बंध विरोध को प्राप्त नहीं होता।" कवि हीरानन्दजी इसी विषय को काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) मूरत मूरत परस है, मूरत सौं सम्बन्ध । जीव अमूरत करम कौं गहै गहावै अंध।।१०७ ।। (सवैया इकतीसा ) याही जगमाहिं जीव संग लग्या चल्या आया, मूरत कर्म-पुंज संतति सुभाव तैं। फास आदि भेद तातै साहजिक लसैं बावे, कर्म सेती एकमेक होहि बंध दावतें ।। निहचै अमूरतीक जीव राग आदि भाव, कर्म पुंज बन्ध करै चैतना विभाव तैं। ऐसा बंध भेद जानि आपापर भिन्न मानि, भेदज्ञानी मोख पावै बंध के अभाव तैं।।१०८ ।। (दोहा ) एक मेक अवगाहना, एकमेक परदेस । दोइ दरब इकठे रहैं, सोई बंध विशेष।।१०९ ।। उपर्युक्त हिन्दी पद्यों का सामान्य अर्थ यह है कि ह्न “पूर्व में बंधे हुए मूर्तिक कर्मों से आगामी मूर्तकर्मों का बंध होता है, यद्यपि ऐसा कहा जाता है कि अमूर्त आत्मा मूर्त कर्मों से बंधा है; परन्तु वास्तविकता यह है कि ह्र अमूर्त से मूर्त का बंध नहीं होता। अमूर्त आत्मा के विभाव तो मात्र

Loading...

Page Navigation
1 ... 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264