Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 226
________________ गाथा - १४५ विगत गाथा में निर्जरा के स्वरूप का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में निर्जरा के मुख्य कारणों का कथन है। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र जो संवरेण जुत्तो अप्पट्टपसाधगो हि अप्पाणं । मुणिऊण झादि णियदं णाणं सो संधुणोदि कम्मरय।।१४५।। (हरिगीत) आत्मानुभव युत आचरण से ध्यान आत्मा का धरें। वे तत्त्वविद संवर सहित हो कर्म रज को निर्जर।।१४५|| संवर से युक्त जो जीव वास्तव में आत्मार्थ का अर्थात् स्व प्रयोजन का प्रकृष्ट-साधक वर्तता हुआ आत्मा को जानकर अर्थात् आत्मा का अनुभव करके ज्ञान को निश्चल रूप से ध्याता है, वह कर्मरज को खिरा देता है। __ आचार्य श्री अमृतचन्द सूरि टीका में कहते हैं कि ह्र संवर से अर्थात् शुभाशुभ परिणाम के परम निरोध से युक्त जो जीव वस्तुस्वरूप को अर्थात् हेय-उपादेय तत्त्व को बराबर जानते हुए पर प्रयोजन से जिसकी बुद्धि विमुख हुई है और मात्र स्व प्रयोजन साधने में जिसकी बुद्धि तत्पर हुई है तथा जो आत्मा को स्वोपलब्धि से उपलब्ध करके अर्थात् स्वानुभव द्वारा अनुभव करके गुण-गुणी का वस्तुरूप से अभेद होने के कारण अविचल परिणतिवाला होकर संचेतता है, वह जीव वास्तव में अत्यन्त मोहराग-द्वेष रहित वर्तता हुआ पूर्वोपार्जित कर्मरज को खिरा देता है। कवि हीरानन्द इसी भाव को काव्य द्वारा स्पष्ट करते हैं ह्र (दोहा ) जो संवर संयुक्त है, आपा साधै आप । ग्यान रूप कै ध्यान तैं, करै न करम मिलाप।।१४० ।। निर्जरा पदार्थ (गाथा १४४ से १४६) (सवैया इकतीसा) संवर संयुक्त होइ वस्तुरूप आपा जोई, पर कै मिलाप सेती आपा न्यारा करई। अपने प्रयोजन में लगै आप जानि करि, आप तैं अभिन्न ग्यान आपरूप धरई।। राग-दोष चिकनाई आपतै जुदाई जानि, ____ तातै रूखै अंग सब कर्म धूलि झरई । यातें धर्म शुक्ल ध्यान निर्जरा कौ हेतु है, ज्ञानी को परम्परा मोक्ष फल देतु है।।१४१ ।। कवि कहते हैं कि ह्र “संवर पूर्व के अन्तरंग-बहिरंग तपों द्वारा ज्ञानी जीव कर्मों की निर्जरा करते हैं। निर्जरा का मुख्य हेतु धर्मध्यान एवं शुक्लध्यान है जो कि ज्ञानी की परम्परा मोक्ष का कारण बनता है।" इसी गाथा पर व्याख्यान देते हुए गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी कहते हैं कि ह्र यह निर्जरा तत्त्व की बात है। जिसने सर्वप्रथम सच्चे देव-गुरु की श्रद्धा की तथा बाद में उनसे भी राग छोड़कर आत्मा की श्रद्धा, अनुभूति तथा लीनता की, उसे निर्जरा होती है। इच्छा का निरोध तप है, किन्तु वह इच्छा निरोध विकार रहित शुद्ध चैतन्य स्वभाव के आश्रय से होता है। उस शुद्ध आत्मा के आश्रय से जो शुद्ध उपयोग होता है, वह भावनिर्जरा है तथा चिदानन्द शान्त स्वरूप आत्मा के आश्रय से शान्ति प्रगट होने पर जो पुराने कर्म खिर जाते हैं वह कर्मों का खिर जाना द्रव्य निर्जरा है।" इसप्रकार इस गाथा में मुख्य बात यह कही कि ह्र निर्जरा का मख्य हेतु संवरपूर्वक आत्मा का ध्यान करना है, जोकि सर्वप्रथम सच्चे-देवशास्त्र-गुरु के यथार्थ श्रद्धापूर्वक होता है, कालान्तर में देव-शास्त्र-गुरु पर से उपयोग हटकर आत्मानुभूति करता है, उसे आत्मलीन होने से कर्मों की निर्जरा होती है। यही निर्जरा का क्रम है, जो ज्ञानी को परम्परा मुक्ति का कारण बनता है। (226) १. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २१०, दि. १९-५-५२, गाथा-१४५, पृष्ठ-१७०३

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