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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
इस गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि "जिन जीवों के राग-द्वेष-मोह नहीं है तथा तीन योगों का परिणमन नहीं है, उन जीवों को शुभाशुभ भावों का नाश करने वाली ध्यान स्वरूप अग्नि प्रगट हो जाती है। जो जीव अपने ज्ञान स्वरूप में एकाग्र होकर राग-द्वेष उत्पन्न नहीं करते, उनके शुभाशुभ भावों का नाश हो जाता है।
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तात्पर्य यह है कि जो जीव परमात्म स्वरूप में अडोल हैं, वे जीव ध्यान करने वाले हैं। जिनका उपयोग शुभाशुभ भाव में नहीं जाता, परमात्मा स्वभाव में स्थिर हो गया है, उसे धर्म होता है।
जब स्वरूप में एकाग्रता करने वाले संत मुनि अनादिकालीन मिथ्या वासना का अभाव करके अपने स्वरूप में आते हैं, तब उन्हें ध्यान होता है। सम्यग्दर्शन होते ही निर्जरा प्रारंभ हो जाती है । मुनियों को विशेष निर्जरा होती है ।
इसप्रकार जो जीव आत्मा का श्रद्धानज्ञान करके मोह-राग-द्वेष रहित शुद्ध स्वरूप में निष्कम्प रूप से स्थिरता करते हैं, उन भेद विज्ञानी ध्यानी को स्वरूप साधक पुरुषार्थ का परम उपाय रूप ध्यान उत्पन्न होता है। ऐसे ध्यान से निर्जरा होती है। "
उपर्युक्त सम्पूर्ण कथन से यह फलित होता है कि जिन जीवों के तत्त्वज्ञान के अभ्यास से ज्यों-ज्यों मोह-राग-द्वेष क्रम होते जाते हैं उनके अपनी भूमिकानुसार धर्मध्यान होने लगता है। वैसे तो सम्यग्दर्शन होते ही निर्जरा होने लगती है, किन्तु मुनि भूमिका में आत्मध्यान की स्थिरता विशेष होने से विशेष निर्जरा होती है।
१. श्रीगुरु प्रवचन प्रसाद नं. २१०, दि. १९-५-५२, पृष्ठ- १९५२
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गाथा - १४७
विगत गाथा में ध्यान के स्वरूप का कथन किया। अब प्रस्तुत गाथा में बंध पदार्थ का व्याख्यान करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्न
जं सुमहमुदिणं भावं रत्तो करेदि जदि अप्पा । सो तेण हवदि बद्धो पोग्गलकम्मेण विविहेण । । १४७ ।। (हरिगीत)
आतमा यदि मलिन हो, करता शुभाशुभ भाव को । तो विविध पुद्गल कर्म द्वारा प्राप्त होता बन्ध को || १४७|| यदि आत्मा रक्त (विकारी) वर्तता हुआ उदित शुभाशुभ भावों को
करता है तो वह आत्मा उन भावों उन भावों के निमित्त से विविध पुद्गल कर्मों से बद्ध होता है।
आचार्यश्री अमृतचन्द्र देव टीका में कहते हैं कि ह्न “यदि वास्तव में यह आत्मा अन्य के (पुद्गल कर्म के) आश्रय से अनादिकाल से रक्त रहकर कर्मोदय के प्रभाव सहित वर्तने से प्रगट होनेवाले शुभ या अशुभ भाव को करता है, तो वह आत्मा उस निमित्त भूत भाव द्वारा विविध पुद्गल कर्मों से बद्ध होता है। इसलिए यहाँ ऐसा कहा है कि ह्र मोहराग-द्वेष द्वारा स्निग्ध जीव के शुभ या अशुभ परिणाम भावबन्ध हैं तथा उन शुभाशुभ परिणामों के निमित्त से शुभ-अशुभ कर्म रूप परिणत पुद्गलों का जीव के साथ अन्योन्य अवगाहन द्रव्यकर्म है।"
इसी भाव को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा)
उदित शुभाशुभ भाव कौं, करे सरागी जीव । तिसही करि नूतन बंधे, पुद्गल कर्म सदीव । । १५६ ।।