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गाथा -१६६ विगत गाथा में सूक्ष्म परसमय के स्वरूप का कथन किया।
अब प्रस्तुत गाथा में निश्चय से शुद्धसंप्रयोग को शुभभावरूप बंध का हेतुपना होने से मोक्षमार्ग होने का निषेध किया गया है।
मूल गाथा इसप्रकार है ह्र अरहंतसिद्धचेदियपवयणगणणाणभत्तिसंपण्णो। बंधदि पुण्णं बहुसो ण हु सो कम्मक्खयं कुणदि।।१६६।।
(हरिगीत) अरहंत सिद्ध मुनिशास्त्र की अर चैत्य की भक्ति करे। बहु पुण्य बंधता है उसे पर कर्मक्षय वह नहिं करे||१६६|| अरहंत, सिद्ध, चैत्य (अरहंत की प्रतिमा) प्रवचन (शास्त्र) मुनिगण और ज्ञान के प्रति भक्ति सम्पन्न जीव बहुत पुण्य बांधता है, परन्तु वस्तुतः वह कर्मक्षय नहीं करता।
आचार्य अमृतचन्द्र अपनी समय व्याख्या टीका में कहते हैं कि ह्र “पूर्वोक्त शुद्धसंप्रयोग को कंथचित् अर्थात् निश्चयनय की अपेक्षा से बंध हेतुपना होने से उसका मोक्षमार्गपना निषिद्ध है अर्थात् ज्ञानी को वर्तता हुआ शुद्धसंप्रयोग (शुभभाव) निश्चय से बंध का हेतुभूत होने के कारण मोक्षमार्ग हीं है ह्न ऐसा दर्शाया है।
अर्हतादि के प्रति भक्ति युक्त जीव कथंचित् शुद्धसंप्रयोगवाला होने पर भी अल्पराग विद्यमान होने से शुभोपयोगीपने को न छोड़ता हुआ बहुत पुण्य बांधता है; परन्तु वस्तुतः सकल कर्म का क्षय नहीं करता। इस कारण सर्वत्र राग की कणिका भी त्यागने योग्य है; क्योंकि वह राग की कणिका परसमय प्रवृत्ति का कारण है।"
इसी भाव के पोषण को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र
अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३)
(दोहा) जिन-सिध-चैत्य सुपरवचन, संघ-ग्यान इन प्रीति। पुण्य करम का बंध बहु, करमनास नहिं रीति।।२३४ ।।
(सवैया इकतीसा) देव-गुरु-ग्रन्थ विर्षे भक्ति धर्मानुराग,
सुद्ध संप्रयोग सोई ग्यानी विषै तोषना । राग अंस जीवै ताते सुभ उपयोग भूप,
भूमिका प्रसिद्ध तातै पुण्यबंध पोषना ।। बंध की प्रनाली लसै करम की सत्ता बसै,
विद्यमान मोख नाहीं कर्मरूप सोषना। ता” रागरूप कनी ज्ञानी जहाँ वहाँ हनी, ऐसी जिनराज मनी साची भाँति घोषना।।२३५ ।।
(दोहा) राग-कनी जौलौं रहे, तौलौं मुकति न होइ।
वीतराग तातें कह्या, सिव अधिकारी जोइ।।२३६ ।। कवि हीरानन्दजी ने उक्त काव्यों में कहा उसका सारांश यह है कि ह्र "अरहंत, सिद्ध, जिनप्रतिमा, जिनप्रवचन एवं मुनि संघ के प्रति प्रीति और भक्ति से पुण्य कर्म का बंध होता है, कर्मों का नाश नहीं होता; क्योंकि वह सब शुभराग है, पर ऐसा भाव ज्ञानी को आये बिना भी नहीं रहता।
देव-शास्त्र-गुरु के प्रति जो भक्तिभाव, धर्मानुराग ज्ञानी को होता है, उसे ही शुद्ध संप्रोक्त कहते हैं। भूमिकानुसार ऐसा भाव आता ही है, पर ज्ञानी यह भी जानता है कि यह बंध है, इससे मोक्ष नहीं होता; इसलिए ज्ञानी इस रागांश को भी अनन्तः त्याग कर आत्मा के स्वरूप में स्थिर होने का पुरुषार्थ करता है।
'जब तक रागांश रहता है, तब तक मुक्ति नहीं होती' ह्र ऐसा उपरोक्त दोहा नं. २३६ में स्पष्ट कहा है तथा यह भी कहा है कि ह्र वीतरागी ही मोक्ष का अधिकारी है, ऐसा जानना।"
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