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गाथा-१७२
पञ्चास्तिकाय परिशीलन (सवैया इकतीसा) जाकै चित्त विर्षे अरहंत की भगति वसै,
सिद्ध का स्वरूप लसै चैत्यबिम्ब नमना । जिनवाणी का सरूप लसै निजहिय में अनूप,
जाकै उपादान सुद्ध अंतरंग रमना ।। नाना तप तपै औ, निदान बिना क्रिया करे,
___ सम्यक् स्वरूप दृष्टि मिथ्या मोह वमना । पर के प्रसंग सेती मोक्ष नाही विद्यमान, सुरगादि सुख पावै रहे लोकभमना।।२५२ ।।
(दोहा) देवग्रन्थ गुरु भगति तैं, पुण्य कलपतरु स्वाख ।
सुरगादिकसुख विविधफल, फलेंसकल अभिलाष ।।२५३।। मूलगाथा, टीका एवं कवि हीरानन्दजी के काव्य का सार यह है कि ह्र जो व्यक्ति अरहंत, सिद्ध, जिनप्रतिमा और जिन प्रवचन की भक्ति करता है, संयम, तप और व्रतों का पालन करता है, वह देवगति को प्राप्त करता है तथा जिसके चित्त में जिनवाणी के माध्यम से तत्त्वों का चिन्तनमनन चलता है, उसके उपादान में अर्थात् जिन आत्मा में शुद्धता की वृद्धि होती है।
जो निदान के बिना नाना प्रकार के तपश्चरण करता है, वह ज्ञानी पुराने मोह का वमन कर देता है।
इसप्रकार इस गाथा में पुण्य का फल स्वर्गलोक है ह्र ऐसा बतलाया गया है, क्योंकि उक्त सभी क्रियायें सम्यक्त्व सहित होकर भी शुभभाव रूप हैं तथा शुभभाव मात्र स्वर्ग का ही हेतु है, मोक्ष का नहीं।
जिसे मोक्ष प्राप्त करना हो, उन्हें वीतराग भाव रूप शुद्धोपयोगी होते हुए अन्तर्मुखी होना अनिवार्य है।
विगत गाथा में मात्र अर्हतादि की भक्ति जितने शुभ राग से उत्पन्न होनेवाले साक्षात् मोक्ष होने के अन्तराय का प्रकाशन है।
प्रस्तुत गाथा में साक्षात् मोक्षमार्ग का सार क्या है, इस बात की सूचना द्वारा शास्त्र तात्पर्यरूप उपसंहार है।
मूल गाथा इसप्रकार है ह्र तम्हा णिव्वुदिकामो रागं सव्वत्थ कुणदु मा किंचि। सो तेण वीदरागो भविओ भवसायरं तरदि।।१७२।।
(हरिगीत) यदि मुक्ति का है लक्ष्य तो फिर राग किंचित् ना करो। वीतरागी बन सदा को भवजलधि से पार हो।।१७२।। हे मोक्षाभिलासी! तुम सर्वत्र ही किंचित् भी राग मत करो; क्योंकि पूर्वोक्त कथनानुसार किंचित् राग भी दुःखद है, संसार का कारण है तथा शुभाशुभ राग में हेयबुद्धि से भव्यजीव वीतराग होकर भवसागर से तर जाते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र समयव्याख्या टीका में कहते हैं कि ह्न यहाँ साक्षात् मोक्षमार्ग को सारभूत सूचना द्वारा शास्त्र तात्पर्य रूप उपसंहार है।
साक्षात् मोक्षमार्ग में अग्रसर सचमुच वीतरागपना है, इसलिए वास्तव में अर्हतादि की ओर के राग को भी चन्दनवृक्ष की अग्नि की भाँति देवलोकादि के क्लेश की प्राप्ति समझकर मोक्ष का अभिलाषी सब ओर के राग को छोड़कर, अत्यन्त वीतराग होकर दुःखदभव सागर से पार उतर कर शुद्धस्वरूप अमृत जल में अवगाहन कर शीघ्र निर्वाण को प्राप्त करता है।
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