Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 255
________________ ४९२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन की प्रसिद्धि के हेतु अर्हतादि की भक्ति विषयक राग भी क्रमशः दूर करने योग्य है। इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र (दोहा) अणुमात्र पर दरव मैं, राग जास किन होइ । सो नहिं जानें सुअ समै, आगम सरब विलोड़ । । २३८ ।। ( सवैया इकतीसा ) जाकै राग रेनु कनी जीवै है हिरदै मांहि, आप विमुख कछू बाहिर कौं बगै है । सबही सिद्धान्त - सिन्धु पारगामी यद्यपि है, तथापि स्वरूप विषै मैल-भाव जगे है ।। तातैं जिन आदि विषै धरमानुराग-कनी, सुद्धमोखमारग मैं साधक सी लगे है । मोख कै सधैया तातैं वीतराग जीव कहे, जग के वंधैया माहिं राग-दोष पगे है ।। २३९ ।। (दोहा) जहाँ राग कनिका रहै, तहाँ न जीव विराम । वीतराग तातैं मुकत, सकल राग परत्याग । । २४० ।। कवि हीरानन्दजी उपर्युक्त पद्यों में कहते है कि जिनके हृदय में परद्रव्यों के प्रति अणुमात्र भी राग है तो वे भले ही सर्वश्रुत के ज्ञाता हों तो वे स्व का अर्थात् निजात्मा का अनुभव नहीं करे। प्रस्तुत गाथा के सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि जिसके हृदय में अणुमात्र भी परद्रव्य के प्रति राग है, वह क्षयोपशमज्ञान की विशेषता से समस्त शास्त्रों को पढ़ा हो तो भी जबतक अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान न हो तब तक वह अज्ञानी ही है। (255) गाथा - १६८ पिछली गाथा में कहा है कि जिसे आत्मज्ञान नहीं है, वह सर्व आगम घर होते हुए भी अज्ञानी ही है। अब प्रस्तुत गाथा में कहते हैं कि समस्त अनर्थ परम्पराओं का मूल रागादि विकल्प हैं, क्योंकि इससे शुभाशुभ कर्मों का संवर नहीं होता । मूल गाथा इसप्रकार है ह्र धरिदुं जस्स ण सक्कं चित्तुब्भामं विणा दु अप्पाणं । रोधो तस्स ण विज्जदि सुहासुहकदस्स कम्मस्स । । १६८ ।। (हरिगीत) चित्त भ्रम से रहित हो निःशंक जो होता नहीं । हो नहीं सकता उसे संवर अशुभ अर शुभ कर्म का || १६८ || जो राग के सद्भाव के कारण अपने चित्त को स्थिर नहीं रख सकता, उसके शुभाशुभ कर्मों का निरोध नहीं है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र टीका में कहते हैं कि ह्न “यह रागांश मूलक दोष परम्परा का निरूपण है। अर्थात् अल्पराग जिसका मूल है ऐसी दोषों की संतति का यहाँ कथन है। टीकाकार कहते हैं कि ह्न इस लोक में वास्तव में अर्हतादि के ओर की भक्ति भी रागपरिणति के बिना नहीं होती । आत्मज्ञान से शून्य रागादि परिणति होने से आत्मा अपने मन की चंचलता को नहीं रोक सकता और बुद्धिप्रसार अर्थात् मन की चंचलता होने से शुभ या अशुभ कर्म का निरोध नहीं होता। इसलिए अनर्थ संतति का मूल कारण राग ही है।' इसी अभिप्राय को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ह्र

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