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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
उसकाल और उतने काल तक यही आत्मा जीव स्वभाव में नियत चारित्र रूप होने से निश्चय से मोक्षमार्ग कहलाता है। इसप्रकार निश्चय मोक्षमार्ग और व्यवहार मोक्षमार्ग को साध्य-साधकपना घटित होता है।
इसी बात को कवि हीरानन्दजी काव्य में कहते हैं ( सवैया इकतीसा )
जग मैं अनादि मिथ्या वासना विनास करिं,
विवहार मोखपंथ नीकै जीव लखे है । दृग ग्यान चारित मैं त्याग उपादान भेद,
आप रूप धारना तैं भेदभाव नखे है । अंग-अंगी- भाव एक गई है जुदाव टेक,
आप माँहि निःकम्प सुद्धरूप रखें हैं। सोई है निहचै रूप मोख मारग सरूप,
अव्यय अनंत सुख सदाकाल चखै है । । २१५ ।। ( दोहा )
निचै अरु विवहार करि, मोखपंथ दुय भेद । साधन-साध्य सधावतैं, बधै बहुत परिच्छेद ।।२१७ ।। कवि कहते हैं कि "जगत में जीव ने अनादिकालीन मिथ्यावासना का विनाश करके व्यवहार मोक्षमार्ग प्रगट किया तथा सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र में निमित्त - उपादान के भेदों को गौण करके अपने निज आत्मा में ही दर्शन ज्ञान व चारित्र को अर्थात् तीनों को भलिभाँति देखा है । यही निश्चय मोक्षमार्ग है। इसे प्राप्त कर ही जीव अनादि अनंतकाल तक अतीन्द्रिय सुख प्राप्त करता है।
निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग दो प्रकार का है। जो साध्यरूप निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट करता है, उसी के व्यवहार श्रद्धा ज्ञानचारित्र साधन कहे जाते हैं। ये भेद विकल्प ही व्यवहार मोक्षमार्ग है।
उक्त गाथा पर व्याख्यान करते हुए गुरुदेव श्री कानजीस्वामी कहते हैं कि ह्न “मैं अभेद ज्ञान स्वभावी तत्त्व हूँ" ऐसी स्वभाव की शुद्ध श्रद्धा, ज्ञान और उसी आत्मा में रमणता रूप आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है।
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अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका (गाथा १५४ से १७३)
जो ऐसा अभेद मोक्षमार्ग प्रगट करता है, उसी के व्यवहार श्रद्धा-ज्ञानचारित्र साधन कहे जाते हैं। ध्रुव स्वभाव का अवलम्बन लेकर वीतरागी श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र प्रगट कर आत्मा के साथ एकरूप हुआ इसी का नाम निश्चय मोक्षमार्ग है तथा भेद के विकल्प व्यवहार मोक्षमार्ग है।
शुद्ध-उपादान तो त्रिकाली चैतन्य द्रव्य है। उसके अवलम्बन से ही निश्चय मोक्षमार्ग होता है। व्यवहार मोक्षमार्ग निश्चय मोक्षमार्ग का निमित्त है उसे निमित्त भी कहा जाता है, जबकि शुद्ध उपादान अनादि आत्मा के आश्रय से निश्चय मोक्षमार्ग प्रगट करे।
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जीव हित करना चाहता है। इसका अर्थ यह है कि उसकी वर्तमान पर्याय में हित नहीं है। अरेभाई! हित कहीं बाहर से नहीं आता, बल्कि अपने अन्दर स्वभाव में से ही आता है। आत्मा के स्वभाव के अवलम्बन से ही अहित का नाश होकर ही हित होता है। एतदर्थ पहले ऐसा विचार आता है कि ह्न सर्वज्ञ कैसे हैं? उनके द्वारा कहे हुए छह द्रव्य सात तत्त्वों का स्वरूप क्या है ? ऐसा जो विचार आता है, वह व्यवहार धर्म है; परन्तु यदि उस शुभभाव रूप व्यवहार का अवलम्बन छोड़कर अन्तर में आत्मा के शुद्धस्वभाव में एकाग्रता करें तो उस शुभराग शुद्धस्वभाव का अवलम्बन लेकर जिसने निश्चय सम्यक्दर्शन - ज्ञान चारित्र रूप समरस भाव प्रगट किया है ह्र ऐसा आत्मा निश्चय से मोक्षमार्ग है। वह ज्ञानी आत्मा कोई भी परद्रव्य का कुछ भी नहीं करता, परन्तु अज्ञानी ऐसा मानता है कि मैं परद्रव्य में फेरफार कर सकता हूँ।"
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इसप्रकार धर्मी को तो ऐसा ज्ञान हो गया कि ह्न 'मैं ज्ञायकमूर्ति हूँ", ऐसा ज्ञान होने पर ज्ञानी जीव एक भी परद्रव्य की क्रिया को अपने आधीन नहीं मानता। तथा सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप आत्म स्वभाव को भी छोड़ता नहीं है।
एकरजकण की क्रिया को भी अपनी मानता नहीं है तथा उनके प्रति राग भी नहीं करता तथा अपने चिदानंद स्वभाव को कभी छोड़ता नहीं है। ऐसे आत्मा को मोक्षमार्ग होता है। इसप्रकार गुरुदेव श्री ने इस गाथा पर विस्तार से चर्चा की।
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२६, दि. ४-६-५२, पृष्ठ- १८३१