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गाथा -१६३
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पञ्चास्तिकाय परिशीलन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता द्वारा अपने में उत्पन्न भेद-विकल्पों को त्याग कर अभेद अखण्ड एक आत्मा के आनन्द का अमृतपान करते हुए कर्मपुंज को जलाकर मोक्ष सुख को प्राप्त करते हैं।
गुरुदेव श्रीकानजीस्वामी अपने व्याख्यान में कहते हैं कि ह्र जो पुरुष अपने ज्ञाता स्वरूप से ज्ञानादि गुण पर्यायों से अभेद एक रूप आचरण करता है, जानता है, श्रद्धा करता है, वह आत्मा ही स्वयं चारित्र है। ज्ञाता-दृष्टा एवं आचरण करने वाला ह्र ये तीनों नामभेद रहित स्वयं दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप होते हैं। राग रहित स्वरूपानन्द में स्थित होने का नाम दर्शन-ज्ञान-चारित्र है। जितनी मात्रा में राग रहता है, उतनी मात्रा में मोक्षमार्ग नहीं है। चिदानन्दमय परम शांत-वीतरागी आनन्द को मग्नता का नाम मोक्षमार्ग है।
तात्पर्य यह है कि वस्तुतः जो आत्मा अपने में अभेदरूप आचरण करता है तथा अन्तर आनन्द में लीन होता है, वही चारित्र है; क्योंकि अभेद दृष्टि से आत्मा गुण-गुणी भाव से एक है। जिस तरह नीबू और उसकी खटास (खट्टापन) एक है, उसी प्रकार नित्य आनन्द स्वभाव एवं स्वभाववान आत्मा एक है।
इसप्रकार निर्मल प्रतीति अनुसार जो आत्मा अपने स्वभाव से निश्चलभाव में प्रवर्तता है। वही मोक्षमार्ग है।१" ।
सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जो अनन्य रूप से निज आत्मा को जानता है आचरण करा है, श्रद्धान करता है, वह आत्मा ही स्वयं दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप है।
विगत गाथा में आत्मा के चारित्र-ज्ञान-दर्शन का प्रकाशन किया गया है।
प्रस्तुत गाथा में कहा है कि ह्र "सभी संसारी जीव मोक्षमार्ग के योग्य नहीं होते।" मूल गाथा इसप्रकार है ह्र
जेण विजाणदिसव्वंपेच्छदिसोतेण सोक्खमणुहवदि। इदि तं जाणदि भविओ अभवियसत्तो ण सद्दहदि।।१६३।।
(हरिगीत) जाने-देखे सर्व जिससे, हो सुखानुभव उसी से। यह जानता है भव्य ही, श्रद्धा करे न अभव्य जिय||१६३|| जिससे आत्मा मुक्त होने पर सबको जानता है और देखता है। उससे वह निराकुल सुख का अनुभव करता है ह ऐसा भव्य जीव जानते हैं। अभव्य जीव ऐसे निराकुल सुख तथा मोक्ष की श्रद्धा नहीं करता।
आचार्य अमृतचन्द टीका में कहते हैं कि ह्र “वास्तव में सुख का कारण स्वभाव की प्रतिकूलता-विपरीतता का अभाव है। आत्मा का स्वभाव दृशि-ज्ञप्ति अर्थात् दर्शन-ज्ञान है। मोक्ष में आत्मा सर्वज्ञ है अतः वहाँ स्वभाव की प्रतिकूलता का अभाव है। मोक्ष में निराकुल सुख की अचलित अनुभूति होती है।
इसप्रकार भव्य जीव ही उस अनन्त सुख को जानते हैं। उपादेय रूप से श्रद्धते हैं, इसलिए वे भव्य जीव ही मोक्षमार्ग के योग्य हैं। अभव्य जीव इस प्रकार की श्रद्धा नहीं करते, इसलिए वे मोक्षमार्ग के योग्य नहीं हैं।
इससे ऐसा कहा है कि कुछ ही संसारी मोक्षमार्गी हैं, सब नहीं।' इसी भाव को कवि हीरानन्दजी ने काव्य में लिखा है -
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१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२८, दि. ६-६-५२, पृष्ठ-१८७४