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पञ्चास्तिकाय परिशीलन
(दोहा)
देखे जाने जिसहिकर, तिस ही करि सुख होइ ।
भव्य मांहि, यहु आचरन, नहिं अभव्य महिं सोइ ।। २२२ ।। ( सवैया इकतीसा )
याही आत्मा के विषै दृग-ज्ञान- सुभावतामै,
विषय - अभिलाष ताका पडिकूल है । मोख माहिं जीव तातें देखे जाने है सदीव,
तामैं विषै का अभाव सोई हेतु मूल है ।। ताही है अनाकुलता लच्छण सुभाव सुख,
ताकी अनुभूति मोख मन्दिर मैं फूल है । ऐसी अनुभूति भव्य माहिं अनुभूति होइ,
सदा ही अभव्य माहिं सुद्धभाव भूल है ।। २२३ ।। (दोहा)
मोख जाइवे जोग है, भव्य जीव निरधार । नहिं अभव्य सिव मग लहै, जतन करौ अनिवार ।। २२४ ।।
कवि हीरानन्दजी ने जो काव्य में कहा उसका सार यह है कि ह्र जिस विधि से ज्ञानी-ज्ञाता-दृष्टा होता, उसी विधि से जीव सुखी होते हैं। अर्थात् जिस वस्तु स्वरूप की समझ, स्व-पर भेदविज्ञान और वस्तु स्वातंत्र्य के सिद्धान्त के समझने से जीव ज्ञाता दृष्टा हो जाता है, उन्हीं सिद्धान्तों की समझ से वह सुखी होता है। ऐसा स्वरूप सन्मुखता का आचरण भव्यों को ही होता है, अभव्यों को नहीं ।
जीव मोक्ष में सदैव ज्ञाता दृष्टा ही रहता है। वहाँ विषयाभिलाषा नहीं है। अनाकुल सुख प्रगट हो जाता है। ऐसी अनुभूति के पात्र भव्य जीव ही हैं।"
गुरुदेव श्री कानजीस्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार कहते हैं “आत्मा अपने स्वभाव की श्रद्धा-ज्ञान- एकाग्रता रूप मोक्षमार्ग से
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अथ मोक्षमार्ग प्रपञ्च चूलिका ( गाथा १५४ से १७३ ) परमानन्द दशा प्राप्त करता है। भगवान को पूर्णज्ञान और आनन्ददशा प्रगट हो गई है, इसकारण भगवान को पूर्ण सुख का अनुभव है।
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अहो! अनाकुल स्वभाव की रमणता से मुक्ति और परमानन्द दशा प्रगट होती है। ऐसे स्वभाव को ही धर्मीजीव उपादेय मानते हैं, परन्तु अपने-अपने गुणस्थान अनुसार वे सुख का अनुभव करते हैं। 'आत्मा के स्वभाव में ही सुख है' ह्न ऐसी श्रद्धा तो सब ज्ञानियों के समान ही है; परन्तु सुख का अनुभव तो गुणस्थान के अनुसार बढ़ता जाता है।
आत्मा का ज्ञान-दर्शन स्वभाव जब अपने विपरीत पुरुषार्थ के कारण ढँक जाता है, तब आवरण कर्म को निमित्त कहा जाता है। कर्म का आवरण तो संयोग है, उसके कारण कोई सुख-दुःख नहीं होता । उल्टे पुरुषार्थ से जो कर्म बंधते हैं, सीधे पुरुषार्थ से उनका नाश हो जाता है। अपने ज्ञान दर्शन - स्वभाव की पहचान करके उसमें एकाग्र होने पर जब वह आवरण नष्ट हो जाता है तथा केवल दर्शन-केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। तब जो आत्मिक शांतरस उत्पन्न होता है, वह सच्चा सुख मात्र मोक्ष में है अन्यत्र नहीं ।"
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इसप्रकार इस गाथा में विशेष यह कही कि श्रद्धा तो चौथे गुण स्थान पूर्ण हो जाती है; परन्तु चारित्रगुण में गुणस्थानों के अनुसार वृद्धि होती है तदनुसार ही सच्चे निराकुल सुख में भी वृद्धि होती है।
समकिती जीवों को भी भूमिकानुसार मंदकषायरूप शुभ होते हैं, परन्तु वह उस रूप आचरण करते हुए भी उसे धर्म नहीं मानता तथा परिणामों में जैसी जैसी निर्मलता बढ़ती है उसी शुभभाव का उल्लंघन कर वीतरागता को प्राप्त करने में तदनुसार निरन्तर उद्यमवंत रहता है। •
१. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २२८, दि. ६-६-५२ के आगे, पृष्ठ- १८५०