Book Title: Panchastikay Parishilan
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 233
________________ ४४८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन अनादि अनन्त है, उसके ज्ञान से चूककर रागादि विकार करना संसार का कारण है तथा उस विकार का अभाव करके पूर्ण शुद्धदशा प्रगट करना मोक्ष है। शरीर को अपना मानना तथा पुण्य-पाप के भाव जो दुःखदायक हैं, संसार के कारण हैं, उन्हें हितरूप मानना भ्रांति है। अनुकूल वस्तुओं राग करना अज्ञान है। अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि ह्न शरीर की अवस्था मुझसे हुई है, पुण्य का भाव हितरूप है, ऐसा मानकर राग करता है। आत्मा देह से भिन्न तत्त्व है तो भी अज्ञानी ऐसा मानता है कि ह्न देह नीरोग स्वस्थ हो तो धर्म हो सकता है। वस्तुतः परपदार्थ आत्मा के नहीं हैं। वे परपदार्थ तो ज्ञानी के ज्ञेय मात्र हैं। ऐसे अपने अन्तर स्वभाव में स्थिर हो जाय तो आस्रव नहीं होता तथा आते हुए कर्म भी रुक जाते हैं। कर्मों का सर्वथा नाश होने पर निरावरण सर्वज्ञ पद प्रगट हो जाता है।' आत्मा ज्ञानस्वभावी वस्तु है। यदि वह राग-द्वेष में अटके तो संसार सागर में डूबता है और यदि आत्मा अपने चैतन्यस्वभावी शुद्ध आत्मा में एकाग्रता करता है तो निर्मोही होकर केवलज्ञानी होता है। जिनके राग होता है, उनका ज्ञानोपयोग क्रमशः होता है तथा केवलज्ञानी का ज्ञान समस्त लोकालोक को (स्व-पर) को एक साथ जानता है। यहाँ मोक्षतत्व की बात बता रहे हैं। अतः कहते हैं कि जो मोक्ष में उपयोग को क्रमशः होता हुआ मानता है, उसका वह मानना ठीक नहीं है; क्योंकि केवली भगवान को ज्ञान क्रिया की प्रवृत्ति क्रमशः नहीं होती, सर्वज्ञअक्रम से एकसाथ समस्त लोकालोक जानते-देखते हैं । २" इसप्रकार उक्त गाथाओं में कहा है कि मोह-राग-द्वेष का अभाव होने से ज्ञानी को नियम से आस्रव का निरोध होता है और आस्रव के अभाव में कर्मों का निरोध होता है तथा कर्मों का अभाव होने से जीव सर्वज्ञ हो जाता है, इन्द्रिय ज्ञान से रहित अव्याबाध और अनन्त सुख को प्राप्त करता है। • १२. श्री सद्गुरु प्रवचन प्रसाद नं. २१४ एवं २१६, दि. २३-५-५२, पृष्ठ- १७२५, १७३० (233) गाथा - १५२ विगत गाथाओं में द्रव्यमोक्ष एवं भावमोक्ष के संदर्भ में मोक्ष पदार्थ का व्याख्यान हुआ । अब प्रस्तुत गाथा में निर्जरा के कारणभूत ध्यान का कथन करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है ह्र दंसणणाणसमग्गं झाणं णो अण्णदव्वसंजुत्तं । जायदि णिज्जरहेदू सभावसहिदस्स साधुस्स । । १५२ । । (हरिगीत) ज्ञान दर्शन पूर्ण अर परद्रव्य विरहित ध्यान जो । वह निर्जरा का हेतु है निजभाव परिणत जीव को ॥१५२॥ स्वभाव सहित साधु को अर्थात् स्वभाव परिणत केवली भगवान को दर्शन ज्ञान से परिपूर्ण और अन्य द्रव्य से असंयुक्त ध्यान निर्जरा का हेतु होता है। आचार्य श्री अमृतचन्द्र देव टीका में कहते हैं कि यह द्रव्यकर्म मोक्ष हेतुभूत ऐसी परम- निर्जरा के कारणभूत ध्यान का कथन है। वस्तुतः यह भावमुक्त (भाव मोक्षवाले) भगवान केवली के स्वरूप तृप्तपने के कारण जिनकी कर्म विपाक कृत सुख-दुःखरूप स्थिति समाप्त हो गई है, उनके कर्मकृत आवरण समाप्त होने के कारण तथा अनन्त ज्ञानदर्शन से सम्पूर्ण शुद्ध ज्ञानचेतनापने कारण और अतीन्द्रिय सुख प्राप्त हो जाने से जो अन्य द्रव्य के संयोग से रहित हैं और शुद्ध स्वरूप में अविचलित चैतन्यवृत्ति रूप होने के कारण जो कथंचित् ध्यान नाम के योग्य हैं, ऐसा आत्मा स्वरूप पूर्व संचित कर्मों की शक्ति क्षीण होने के कारण अथवा का नाश हो जाने के कारण निर्जरा के हेतुरूप से वर्णन किया जाता है। सारांश यह है कि ह्न केवली भगवान के आत्मा की दशा ज्ञानावरण

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